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. प्रबुद्ध साधक ही इसकी सीमाको पार कर अजर अमर होते है।
है। परन्तु यह सब क्रिया योगियों को हानि पहुंचाती है।
ध्यान का वर्णन . "सूत्र-तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् ॥२॥ - अर्थ-(तत्र) नाभि आदि स्थानों में (प्रत्ययकतानता) ज्ञान की स्थिरता, जो अन्य उपायों से प्राप्त नहीं होती वह (ध्तानम्) ध्यान कहाता है ।
सूत्र की भाषाटीका-नाभि आदि देशों में जो ध्येय का ज्ञान होता है उसको ध्यान कहते हैं।
व्यास का भाष्य (तस्मिन्देशे) उन नाभि आदि स्थानों में ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यकतानता) ध्येय के अवलम्बन के ज्ञान में लय हो जाना (असदृशः प्रवाहः) अनुपम ज्ञान का प्रवाह (प्रत्ययान्तरेण परामृष्टः) और ज्ञान से जो सम्बन्ध रखता हो (ध्यान्म) उसे ध्यान कहते हैं ।।२।। __ भाषा का भावार्थ-नाभि आदि स्थानों में ध्येय के ज्ञान में चित्त का लय हो जाना, और उसमें दूसरे ज्ञान का प्रभाव होना इमको ध्यान कहते हैं ।
समाधि का वर्णन सूत्र-तदेवार्थ मात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि : ॥३॥
अर्थ-(तदेव) वही ध्यान (अर्थमात्रनिर्भासम्) अर्थ मात्र रह जाय, (स्वरूपशून्यमिव) स्वरूप-शून्य सा प्रतीत हो, (समाधिः) उसको समाधि कहते हैं । .: भाष्य का पदार्थ-(इदरत्र बोध्यम्) ऐसा यहां जाना चाहिये, (ध्यातध्येयध्यानकलनावद् ध्यानम्) ध्यान करने वाला और जिसका ध्यान किया जाय तथा ध्यान, इन तीनों का प्रभेद जिसमें प्रतीत हो, वह ध्यान कहलाता है । (तद्रहितं समाधिः) उस भेद से रहित को समाधि कहते हैं । (इति ध्यानसमाध्योविभागः) यही ध्यान और समाधि में भेद है । (अस्य च समाधि-रूपस्यांग स्यांगियोगसंप्रज्ञातयोगादयं भेदः) इस समाधि रूप योगांग का अंगसम्प्रज्ञातयोग से यही भेद है, (यदत्र चिन्तारूपतया निःशेषतो ध्येयरूपं न भासते) जिस समाधि में चिन्ता विनष्ट हो जाने के कारण ध्येय का स्वरूप प्रकाशित नहीं होता । (सम्प्रज्ञाते) सम्प्रज्ञात में, (साक्षात्कारोदये समाध्यविषया अपि विषया
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