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केवल बालमानसे कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता।
माती। इसलिये दृष्टान्त सहित दिखाते हैं, कि जैसे जल में सैंधा नमक विण) देने से दोनों का ऐक्य दीखता है, वैसे मन बाह्य विषयों से विमुख हो और अन्तर्मुख आत्माकार-वृत्ति होकर आत्मा और मन का ऐक्य होता है, ऐसे जीवात्मा परमात्सा के एकपन को समाधि कहते हैं । ... मन और प्राण को एकत्र करके स्थिर रूप से आत्मा की भावना करने वाले योगी का जब प्राण वायु आत्मा में ही लीन हो जाता है, तब अन्तःकरण लीन होता है, जल और सैन्धव की तरह जीवात्मा तथा परमात्मा की एकता होती है, इसको ही समाधि कहते हैं । ____ योगी की समाधि में रहने की अवस्था कहते हैं। जो योगी समाधि में एकत्व को प्राप्त हो जाता है, उसकी सब इन्द्रियां मन में लीनता को प्राप्त हो गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, इन पांचों विषयों को नहीं जानतीं। कोई वस्तु को अपनी वा पराई कुछ नहीं जानता, जीवात्मा तथा परमात्मा को पृथक् नहीं मानता, एक ही समझता है; इस प्रकार ध्यान में लीन होने से और किसी प्रकार का भान नहीं होता।
इस रीति से समाधि कही, यह वर्णन गोरक्षपद्धिति का है। इस में जो भाषा लिखी गई है, वह बेंकटेश्वर छापाखाने की पुस्तक छपी हुई है, उसके अनुसार हमने लिखा है, अपनी तरफ से श्लोकों का अर्थ नहीं बनाया है। यह पाठकों को ध्यान रहे। ____ अब हम इन तीन अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि में जो न्यूनाधिकता है, सो पाठकों को दिखाते हैं । जो धारणा में ध्येय का स्वरूप कहा है, उस ध्येयरूप धारणा को करेगा, तो आत्म-स्वरूप कदापि न मिलेगा, क्योंकि उस धारणा में पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, और चक्रादि को ध्येयरूप मानकर धारणा करना यह आत्म-स्वरूप न हुआ । किन्तु प्रकृति रूप अर्थात् माया पुद्गलरूप धारणा हुई, जिससे आत्म स्वरूप मिलना असम्भव है । हां, इस ध्येयरूप धारणा से ध्यान करे तो सिद्धियों का कारण-भूत यंजान योग अर्थात पिण्डस्थ ध्यान होगा न कि आत्म-स्वरूप की इच्छा वालों के वास्ते जो ध्येय रूप धारणा है, उसे आगे कहेंगे । इस जगह' तो जिस ग्रन्थ के अनुसार कहते हैं, उसी का दिखाना ठीक है । जब धारणा ठीक न हुई, तब ध्यान किसका .
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