Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 304
________________ आत्मा स्वयं दृष्ट रहकर भी दृष्टा है हैं और जब कोई सर्वज्ञ मतवाले के पास में आता है, उस श्राने वास्तविक अपेक्षा से समझा देते हैं । जो अपेक्षा को नहीं समझाने वाले उन्हीं से झगड़ा होता है । सो सर्व मतावलम्बी एक-एक अपेक्षा को लेकर एकांत पकड़ बैठे हैं, इसीलिए झगड़ा हो गया है किन्तु मुझे तो सर्व मतानुयायी इस स्याद्वाद सर्वज्ञ मत से बाहर कोई नहीं दीखता है । श्री आनन्दघनजी महाराज ने २१वें श्रीनमीनाथ जी के स्तवन में षड्दर्शनों का अंग- उपांग मिलाकर श्री नमीनाथ जी का शरीर बनाया है । मैं इस जगह किंचित् एकता करके दिखाता हूं । जैन मत में मुख्य दो पदार्थों की मान्यता है जीव और अजीव । इन दो पदार्थों के अनेक भेद करके जिज्ञासुत्रों को समझाया है । इन दो पदार्थों से अतिरिक्त पदार्थ को मानने वाला कोई नहीं है । कोई जीव को एक ही मानता है, कोई अनेक | कोई अजीव को मानता है, कोई दोनों को मानता है । इससे बाहर कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । वेदान्त' अर्थात् एक ब्रह्म को मानता है, तो देखो श्री ठाणांग जी के पहले ठाने में "एगे आया" ऐसा पाठ है, तो देखो एक कहने से अद्वैत सिद्ध हो गया। दूसरा सर्वज्ञों ने ऐसा भी फरमाया है, कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य ये चार गुण और असंख्यात प्रदेश जीव के हैं वे भव्य, अभव्य, सिद्ध और संसारी सर्व के बराबर हैं । वे चार गुण और असंख्यात प्रदेश किसी के 'न्यूनाधिक नहीं । इस रीति से कहना और आपस में अन्तर न होना, इस अपेक्षा से अंगीकार करे तो श्रद्वतवादी से कुछ विरोध नहीं । सामान्य अपेक्षा से उसने भी * सर्वज्ञ विरुद्ध कथन नहीं किया । इस "एगे आया" शब्द को लेकर अद्वैत को लेकर अद्वैत को सिद्ध कर दिया । . • नैयायिक जो कर्ता मानता है, सो एक अंश में उसका कर्तापन भी सिद्ध होता है, क्योंकि यह जीव अपने स्वभाव का कर्ता है । यदि यहां कोई ऐसी शंका करें, कि नैयायिक तो सृष्टि का कर्ता मानता है, तो हम कहते हैं, कि जीव अनादि काल से सृष्टि का कर्ता बना हुआ है । इसलिए कुछ दोष नहीं प्रतीत होता । कदाचित् कोई यह कहे कि वह तो ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानता है । तो हम कहते हैं, कि वह सृष्टि का निमित्त कारण मानता है, , Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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