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काल (मृत्यु) किसी का बन्धु नहीं है। भासन्ते) साक्षात्कार के उदय होने से समाधि के अगम्य विषय हात हैं, (तथा च साक्षात्कारयुक्त एकाग्रकाले संप्रज्ञातयोगः (साक्षात्कार के उव्य होने से समाधि के अगम्य विषय भी प्रतीत होने लगता है । (प्रत्ययात्मकेन स्वरूपेण शून्यमेव यदा भवति) ज्ञान स्वरूप से शून्य के समान हो जाता है। (ध्येयस्वभावावेशात्तदा समाधिरित्युच्यते) ध्याता में जब ध्येय के स्वभाव का आवेश हो जाता है तब समाधि होती है ।।३।।
प्रथम पाद का तृतीय सूत्र लिखकर दिखाते हैंसूत्र-“तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्" ॥३॥
अर्थ-(तदा तस्मिन्काले, काले देति दा प्रत्ययः, तच्छब्दो हि पूर्वपरामर्शक:) उस समय, (द्रष्टुः पश्यतीति द्रष्टा तस्य, दृशेस्तृच् इति दृशेः तृच् प्रत्ययः) देखनेवाले की अर्थात् निर्विकल्प समाधिस्थ जीव की, (स्वरूपेः स्वस्य रूपं स्वरूपं तस्मिन्) आत्म चिन्तन में, (अवस्थानम्, वस्थानं वा अवतिष्ठति विचार्यते अनेनास्मिन्वेत्यस्थानम्, द्वितीयपक्षे भागुरिऋषमतेनाकारलोपः, पूर्वतु ,एङ: पदान्तादति'' इति सूत्रेएणकारस्य पूर्वरूपत्वम्) बिचार किया जाय जिससे, उसको अवस्थान कहते हैं।
भाष्य का भावार्थ-जब सम्प्रज्ञात योग में चित्त की स्थिति हो जाती है, तब जीव केवल अपने स्वरूप का विचार और दर्शन करता है। जैसे कैवल्यमोक्ष में ज्ञान शक्ति रहती है । उस शक्ति का साफल्य तब ही होता है, जब किसी ज्ञेय पदार्थ से सम्वन्ध हो । तब उस निर्विकल्प समाधि में ज्ञेय क्या है ? इसका उत्तर यही है कि उस सम्प्रज्ञात योग में केवल अपना स्वरूप ही ज्ञेय है । क्योंकि जबतक द्रष्टा बाह्य स्वरूपों को देखता है तब तक वह अपने . स्वरूप को नहीं जान सकता।
सूत्र- ''वृत्तिसारूप्यमितरत्र' ॥४॥
भावार्थ-निरुद्धावस्था के अतिरिक्त जोर दशाओं में चित्तवृत्ति के रूप को धारण कर लेता है।
इस रीति से पातंजल योगसूत्र का लेख दिखाया, परन्तु धारणा में ध्येय वस्तु का यथावत् स्वरूप न आया । जब धारणा यथावत् न हुई तो ध्यान भी
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