Book Title: Swaroday Vignan
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Sahitya Prakashan Mandir

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Page 308
________________ घृत और मधु से भी अत्यन्त स्वादु वचालिए। प्रतिपक्षी का जानना आवश्यक है; कहा भी है “पदार्थज्ञाने प्रति इसलिए जब आत्मरूप ध्येय की धारणा करनी है, तो अनात्मा जो हेलाका हैं उसका आत्मा से भिन्न दिखाकर त्याग करावे और आत्मा को ही ध्येय रूप धारणा से ध्यान करावे तो समाधि प्राप्त होगी। क्योंकि आत्मा से अनात्मा का अनादि संयोग है। इसलिए जब आत्मा और अनात्मा दोनों का स्वरूप दिखाकर अनात्मा में ग्लानि उत्पन्न करा दे और आत्मा में रुचि करावे तब उस आत्मा रूप ध्येय की धारणा यथावत् सिद्ध होगी, क्योंकि बिना ग्लानि के दूसरी जगह रुचि नहीं होती। इसलिए यहां एक दृष्टान्त ग्लानि और रुचि पर दिखाते हैं। एक नगर में एक बहुत मातवर धनाढ्य साहूकार रहता था। उसका नाम लक्ष्मीसागर था। उसके एक पुत्र था । वह बालक अति सुन्दर तथा चतुर था और व्यापार, बातचीत, उठना, बैठना आदि सब बातों में लायक और बुद्धिमान् था । परन्तु उसमें एक दोष यह था कि वह वेश्या-गमन करता था। इस व्यसन के होने से उसने लाखों रुपये खर्च कर दिये । यह दोष उसके पिता को विदित हो गया, तब उसने इसके दूर करने के लिये अनेक प्रयत्न परोक्ष में किए जिससे कि यह दोष दूर हो जाए और उसको मालूम पड़े। परन्तु उस लड़के का व्यसन न छूटा, तब सेठ ने विचारा, कि इसके वास्ते कोई ऐसा उपाय करू, जिससे इसको बेश्या के यहां जाने से ग्लानि हो तथा अपनी स्त्री में रुचि करे, तब इसका यह व्यसन छूटेगा । इसलिये अब मुझको उचित है कि इसको प्रत्यक्ष भेजूं, क्योंकि चोरी से जाने से बहुत खर्चा पड़ता है । यह विचार कर एक रोज़ अपने पुत्र से कहने लगा कि हे प्रिय पुत्र ! जिस समय चार घड़ी दिन बाकी रहे उस समय तुम सैर करने को चले जाया करो और पहर डेढ़ पहर रात के व्यतीत हो जाने पर लौट आया करो, तुमको जितने रुपयों भी आवश्यकता हो, उतने रोकड़िये से ले जाया करो। यदि इस आयु में ही मोज-शौक न करोगे तो फिर कब करोगे ? क्योंकि धन का उपार्जन सुख भोगने के लिए ही किया जाता है । इसलिये तुम अपने दिल में किसी प्रकार की फिक्र न करो। ऐसा अपने पिता के मुख से सुनकर अपने चित्त में वह बालक बहुत प्रसन्न हुम्ला, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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