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जो धर्म है, वह सत्य ही तो है।
"अहं दु:खी' इत्यादि अभिमान करता है। जब अपनी निर्मल बुद्धि पाधि पृथक् माने तब आत्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है। जैसे रक्तादि रंग के संसर्ग से स्फटिक भी वैसा हो मालूम होता है परन्तु बुद्धि से जाने कि स्फटिक तो शुक्ल ही है, किन्तु रक्तादि रङ्ग रूप उपाधि विकार से मिथ्या रंग देखा जाता है वेसे ही इन्द्रिय धर्मों से व्याप्त भी जीवात्मा यथार्थ आनन्द से अद्वैतानन्द स्वरूप है। सुख-दुःख का इसमें सम्बन्ध नहीं है । जब ऐसा ज्ञान योगाभ्यास से होता है तब योगी उपाधि जाल का विनाश करने में समर्थ होता है। . "शब्दादीनाञ्च तन्मात्र, यावत्कर्णादिषु स्थितम् ।
तावदेवं स्मृतं ध्यानं, समाधिः स्यादतः परम् ।। ८३ ॥" अर्थ-ध्यान एवं समाधि का अवस्था भेद कहते हैं कि ध्यानावस्था में स्थिर रहते योगी के कादि इन्द्रियों में शब्दादि विषयों का सूक्ष्म भाग जब तक प्राप्त होता है, तब तक ही ध्यानावस्था रहती है। जब आत्मा में पञ्चेद्रिय वृत्ति लीन हो जाये, तब आत्मा में अर्थ मात्र के भान वाली अवस्था समाधि कहलाती है।
"यत्सर्वद्वन्द्वयोरैक्यं, जीवात्मपरमात्मनोः । समस्तनष्ठसंकल्पः समाधि: सोऽभिधीयते ।।८५।। अम्बुसन्धवयोरैक्यं; यथा भवति योगतः । तथात्म-मनसोरैक्यं, समाधिः सोऽभिधीयते ॥८६॥ यदा संक्षीयते प्राणो, मानसञ्च प्रलीयते । यदा समरसत्वञ्च, समाधिः सोऽभिधीयते ।।८७॥ न गन्धं न रसं रूपं, न च स्पर्श न निःस्वनम् ।
नात्मानं न परं वेत्ति, योगी युक्तः समाधिना ॥८८॥" अर्थात्-भूख-प्यास, शीत-उष्ण, सुख-दुःखादि द्वन्द्व कहाते है। इन से पीड़ा तथा उद्वेग न होने का माम ऐक्य है । इस अवस्था को पाकर जीवात्मापरमात्मा को कारण मात्र रूप से एक जानना, समस्त मानसी तरंगों से रहित होना, समाधि कहलाती है।
जीवात्मा तथा परमात्मा के, तथा आत्मा और मन के-एक न होने से
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