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- मेरी अपरात्मा ही ज्ञान है दर्शन है और चरित्र है।
शब्दों के अर्थ तथा उनके नाम १ ओम्, २ सोऽहं, ३ राम, 'राम' को कोई 'र' भी कहते हैं, ४ हंस, ५ कोहग।
१-प्रोम् ओंकार शब्द को सर्वमताबलम्बी शास्त्रानुसार ईश्वर का रूप मान कर इसकी उपासना करते हैं । वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषदादि वैष्णव लोगों के ग्रन्थों में ओंकार को ब्रह्मरूप परमात्मा मानकर उपासना करना कहा है, और
८६ ओम् को सब मत मतान्तरों ने भगवान् का सर्वोत्तम-उत्कृष्ट नाम माना है, क्योंकि इसके द्वारा भगवान् में स्थित उन समस्त शक्तियों का ज्ञान होता है जो कि उस में अन्य चेतनों की अपेक्षा विशेष कही जा सकती हैं । हम यहां पर जैन दृष्टि से ही इसके विशेष अर्थों का प्रतिपादन करेंगे। जैनागमों में "ओम्' शब्द का अर्थ निम्न प्रकार से किया गया हैं यथा
(क) “अरिहंता-असरीरा-आयरिय-- उवज्झाय-मुगियो । पंचक्खर-निप्पण्णो ओंकारो पंचपरमिट्टी' ॥१॥
अर्थात्-अरिहंत, अशरीरी (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय, मुनि (साधु) इन पांच परमेष्ठियों के आदि के पांच अक्षरौ से ओं-कार का निर्माण हुआ है जैसे कि (१) अरिहंत-अ । (२) अशरीरी-अ। (३) आचार्य-आ। (४) उपाध्याय-उ। (५) मुनि-म् । अ+अ+आ+उ+म् =ोम् ।
आदि के तीनों अवर्णों को 'अक: सवर्णे दीर्घ: सूत्र से दीर्घ करने पर तथा उससे पर 'उकार' के साथ 'आद्गुणः' सूत्र से गुण एकादेश करने पर तथा 'म्' का पर सम्बन्ध होने पर 'ओम्' शब्द सिद्ध होता है । अर्थात इस मैं पंच परमेष्ठी का समावेश होता है। ___ उपर्युक्त पांचों पदों के आद्य अक्षरों के योग से 'ओम्' बना है तात्पर्य यह है कि विभिन्न शक्तियों, गुणों तथा विशेषताओं के बोधक पांचों पदों के द्वारा जो अर्थ बोधित होते हैं वे सव जिसमें विद्यमान हों अर्थात् जो सर्वगुणागार सर्वज्ञ, सर्वदुःखरहित जीव है वह 'ओम्' शब्द का वाच्य है। इस में साकार निराकार ईश्वर का तथा सद्गुरुओं का समावेश है।
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