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मुनि को पृथ्वी की भांति क्षमाशील होना चाहिए ।
श्रीभद्रबाहु लामीजी के पास भेजा, तब उन्होंने पढ़ाना आरम्भ कर दिया। श्रीस्थूलभद्रजी को दशपूर्व तक पढ़ाया, इधर से श्रीभद्रबाहु स्वामी का महाप्राणायाम भी सिद्ध हो गया, और मुनियों को भी जित IT जिसको कण्ठस्थ हो सका उतना ही उसको पढ़ाया, फिर वहां से विहार कर विचरने को चित्त आया । अनन्तर पाटलीपुर नगर में आकर भव्यजीवों को उपदेश देने लगे।
उस समय श्री स्थूलभद्रजी महाराज गुरु की आज्ञा लेकर जंगल के बीच गुफा में पठित विद्या का मनन करने के लिये गये । थोड़े समय में (उनकी गृहस्थपन की बहिन जो साध्वी हो गई थी) एक साध्वी भद्रबाहुस्वामी के पास आकर विधिपूर्वक वन्दना कर कहने लगी कि हमारे भाई स्थूलभद्रजी महाराज आपके पास पढ़ने को आये थे वे कहां है, नजर नहीं आये, उन्हें वन्दना करने की हमारी तीव्र इच्छा है । इसके अनन्तर उत्तर में श्रीमद्रबाहु स्वामी बोले कि वे फलानी जगह पर अभ्यस्त विद्या का मनन-परावर्तन करते हैं । यदि तुम्हारी उन्हें वन्दना करने की इच्छा हो तो वहां जाओ। इस उत्तर को सुनकर गुरुजी की आज्ञा से वहां से जब स्थूलभद्रजी को बांदने के लिए चली, तो उस समय स्थूलभद्रजी ने जान लिया कि मेरी साध्वी बहन मुझे वन्दना करने के लिए आ रही है। तो उसे देखकर स्थूलभद्रजी महाराज ने विद्या के बल से घमंड में आकर अपने आपको सिंह के रूप में परिवर्तित कर लिया, और जब साध्वी बहन समीप पहुंची तो वहां थोड़ी दूर से देखा कि सिंह बैठा हुआ है तो सिंह को देवकर पीछे लौटी, और व्याकुल-चित्त होती हुई चिन्ता करने लगी कि मेरे भाई मुनि स्थूलभद्रजी को सिंह ने खा लिया होगा । ऐसा विचार करती हुई श्री गुरु महाराज के पास आकर यह समस्त हाल सुनाया, और गुरुमहाराज यह वृत्त सुनकर उपयोग दे बोले कि तेरे माई को सिंह ने नहीं खाया, वास्तव में तेरा भाई तुझे अपनी विद्या का चमत्कार दिखाने के लिए सिंह का रूप धारण कर वहीं बैठा है, अब जाओ वहां मिलेगा और जाकर वन्दना करना। यह सुनकर मन में सन्तोष पाकर फिर से वहां जाकर उन्हें वन्दन कर वह पीछे
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