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मानव जीवन आत्म साधना का मंदिर है।
बब इस प्रकार पुरुष के नल खड़े हो जायें, फिर. उसमें प्राण और अपानवायु को इस तरह घुमाना चाहिये, जैसे कि कुम्हार का चाक घूमता है यह नौलीचक्र कहलाता है । इस नौली के करने से जठराग्नि तेज होती हैं और जो मलादिक पेट में कच्चा हो उसे पकाकर दस्त की राह बाहर निकाल देता है, और आम आदि पैदा होने नहीं देता, इस नौली के होने से प्रारण अपान दोनों को एक करने में भी सहायता मिलती है, बस्तिकर्म में मुख्यता इस नौली-चक्र की है, इसलिए इसको अवश्य ही करना चाहिए।
. ६-बस्तीकर्म - ब्रस्तीकर्म का स्वरूप यह है कि कूड़े में त्रिफला का पानी अथवा उष्ण पानी भरे, परन्तु वह ज्यादा गरम न हो, गुनगुना (कवोष्ण) होय । और जस्त अथवा नरसल या बांस पोला पतला चिकना हो, उसकी छः अंगुल की नली बनावे, फिर उस नली को गुदा में चढ़ावे, वह चार अंगुल तो भीतर रखे और दो अंगुल बाहर रखे। फिर उस कूडे के ऊपर बैठे और जो पहले "नौलीकर्म" कह आये हैं, उस रीति से नलों को उठावे, फिर अपानवायु का ऊर्ध्व-रेचन करे अर्थात् ऊपर को खींचे। उस वाय के खींचने से जल ऊपर को चढ़ आता है; फिर उस नली को निकाल दे, और दो मिनट के बाद नौलीचक्र फिरावे । फिर कुछ देर के बाद प्राण वायु का जोर देकर अपानवायु से अधोरेचन करे, और उस जल को गुदा के रास्ते से निकाल दे । उस जल में जो कुछ पेट में मल आदि है, वह जल के साथ तमाम बाहर निकल जाता है। कदाचित् थोड़ा बहुत जल पेट में रह जाये तो मयूरासन करे, फिर अधोरेचन करने से बिलकूल जल निकल जाता है । इस बस्तीकर्म करने का तात्पर्य यही है, कि प्राण और अपान को एकत्र करने में सहायता मिले । बिना पेट साफ किये प्राण-अपान की खबर ही नहीं पड़ती। इसलिए शरीर में मल आदि बिगड़ा हो तो अवश्य ही इसको करे।
७-गणेशक्रिया यह गणेश क्रिया इस तरह की जाती है, कि जिस वक्त पाखाना को जाय उस वक्त मल अच्छी तरह से निकल जाय तब मध्यमा (बीच की) अथवा
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