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मार्य महापुरुषोंने सबपर समभावको ही सच्चा धर्म माना है।
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. १ मूलाधार चक्र का वर्णन इसका प्रकार यह है, कि गुदा से दो अंगुल ऊपर मूलाधार चक्र है, इसको गणेश चक्र भी कहते हैं । इसकी चार पंखड़ियां हैं । इस चक्र का रंग लाल है-जैसे सूर्य के उदय वा अस्त के समय बादल लाल होता है, इस तरह का इसका रंग है और उन चारों पंखड़ियों के ऊपर ये चार अक्षर हैं;-वं, शं, षं, सं । ये चारों पंखड़ियों में इस कदर दमकते हैं कि जेसे अंगूठी आदि
में नगीना लगने से वह दमकता है । .. इस मूलाधार के पास में कन्द है । वह कन्द चार अंगुल विस्तार वाला है। सो मूलाधार से दो अंगुल ऊंचा, और लिंग चक्र से एक अंगुल नीचा
और चार अंगुल विस्तार वाला है, तथा अण्डे के समान गोल आकार वाला है, एवं गुदा ऊपर मेड़ें अर्थात् कन्द के पास बीच में योनि है उसका त्रिकोण आकार है। यह पश्चिम-मुखी है-अर्थात् पीछे को मुख है। बंकनाल अथवा उर्द्धव गमन उसी में होकर है।
कुण्डलिनी नाड़ी उसी स्थान में सर्वदा कुण्डिलिनी की स्थिति है। यह कुण्डलिनी, सब नाड़ियों को घेरकर साढ़े तीन प्रांटे (फेर) देकर कुटिल आकृति से अपने मुख में पूंछ को दबाकर सुषुम्ना विवर में स्थित है और सर्प के सदृश है तथा बालक के केश से भी सूक्ष्म और तप्त किये हुए सुवर्ण के सदृश देदीप्यमान है। __ और लाल रंग का काम-बीज उसके सिर पर घूमता है । जिस स्थान में कुण्डली स्थित है, उसी स्थान में काम बीज के साथ सुषुम्ना नाड़ी भी स्थित है और शरीर में भ्रमण करती है । कभी ऊर्ध्वगामिनी, कभी अधोगामिनी और कभी जल में प्रवेश करने वाली है। - इसको जगाने की रीति, और कुछ नाड़ियों का वर्णन करेंगे। इस जगह प्रसंगवश किंचित् चिन्ह बताया है, इस देदीप्यमान काम-बीज सहित मूलाधार चक्र का ध्यान करने वाले पुरुष को बारह महीने के भीतर जो शास्त्र कभी श्रवण नहीं किये हैं उन शास्त्रों के रहस्य-सहित भावार्थ समझने की शक्ति
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