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शास्त्र-ज्ञानसे शून्य श्रमण न अपनेको जान पाता है न पर को। को रक्खे । इसका तात्पर्य यह है कि जैसे स्तम्भ पट्टी को धारण वैसे ही जो जिसको धारण करता है, वह उसका आधार है, सो प्राधार संसार में अनेक हैं । इस योगसिद्धि में आधार ये हैं-(१) एक उपादान आधार, (२) निमित्त आधार, (३) मुख्याधार, (४) गौणाधार, (५) द्रव्याधार, (६) भावाधार, (७) स्वाधार, (८) पराधार, (९) बाह्याधार (१०) आभ्यन्तराधार (११) उपचरित आधार (१२) अनुपचरित आधार। इस रीति से इन आधारों के अनेक भेद हैं । विशेष गुरुगम से जानना चाहिए, हमने ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से नहीं लिखा।
लक्ष्यार्थ कथन लक्ष्य वह है जो लक्षण से पहिचाना जाय अथवा लक्ष्य नाम वस्तु दिखाने का भी है और लक्ष्य नाम निशान का भी है, सो इस योगाभ्यास में वस्तु का देखना वही लक्ष्य है।
भावनार्थ का वर्णन भावना का अर्थ इस प्रकार है कि 'भावयतीति भावना' । तात्पर्य यह है कि विचार करना । उस विचारी हुई वस्तु में सत्य को ग्रहण करे असत्य को छोड़े। ___ 'गोरक्षपद्धति' में जो पांच आकाश लिखे हैं सो पंचतत्त्वादि पांच पद, अर्हन्त, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय, साधु ये हैं । क्योंकि आकाश एक है, पांच नहीं हैं, परन्तु तत्त्वों की अपेक्षा से पांच आकाश मान कर कहा है । इस रीति से इतना अर्थ कहा । अब मतलब बतलाते हैं कि ऊपर लिखे आधारों को समझ कर जानें और हमारे लिखे चारों भेदों को पहचानें तो योग-सिद्धि यथावत् घट में आवेगी, बिना इनके योगाभ्यास संभव नहीं है ।
प्रश्न- आपने ऊपर लिखे आधारों को अंगीकार न किया और दूसरे ही आधार बताये, तो क्या बुद्धिमानों ने ऊपर लिखे आधारों को व्यर्थ ही कहा
___ उत्तर-हे देवानुप्रिय ! ऊपर लिखे आधार जो बुद्धिमानों ने लिखे हैं वे आधार नहीं हैं, किन्तु कर्तव्य है। कर्त्तव्य उसको कहते हैं कि जो करने के
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