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बीर पुरुष कभी नष्ट नहीं होता ।
वायों का स्थान
प्राणवायु हृदय में रहती है और श्वास-प्रश्वास को बाहर-भीतर निकालती हैं और जठराग्नि से अन्न पानादि को परिपक्व करती है । अपानवायु मूलाधार से मल-मूत्र को बाहर निकालती है । समान वायु नाभि में रहकर सब नाड़ियों को यथास्थान रखती है । उदान वायु कण्ठ में रहकर शरीर की वृद्धि करती है । व्यानवायु सर्व शरीर में व्याप्त है। वह लेना छोड़ना ( आदान - उत्सर्ग धर्म ) करती है । नागवायु उद्गार अर्थात् डकार कराती है कूर्मवायु नेत्रों के पलकों को ऊपर-नीचे लाती है । कृकल वायु नासिका से छींक कराती है । देवदत्त वायु जंभाई ( जृम्भा ) कराती है । धनंजय सर्वशरीर में रहती है । इनको दश प्रारण भी कहते हैं । परन्तु मुख्यता जो कुछ है वह श्वास-प्रश्वास की है । जो कुछ काम जगत में हो रहा है वह सब इसकी कृपा है ।
इस आर्यावर्त से कितने ही मनुष्यों ने योगाभ्यास का भेद पाया है । अरबस्थान वाले मुसलमागों ने यहां से योगाभ्यास को पाकर इसका नाम अपने संकेत में (हवसेदम) रख लिया है; और अंग्रेज लोग 'मैस्मेरिजम' कहते हैं। ये सब खेल मन - वायु के साथ होने से यथावत् सिद्ध होता है । क्योंकि मन-वायु की एकता होगी, तब चित्त को एकाग्र कर जिस काम में लगावेगा, उस कार्य में अवश्य प्रवृत्त होगा । क्योंकि चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है ऐसा पतंजलिने योग-दर्शन में लिखा है " योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ||२||" इसका अर्थ यह है कि 'युज्यतेऽसौ योग : ' जो युक्त किया जाय उसको योग कहते हैं । 'चित्तवृत्तिनिरोधः, चित्तस्य वृत्तयः चित्तवृत्तयः चित्तवृत्तीनां निरोध इति चित्तवृत्तिनिरोध:' चित्त की वृत्तियों को रोकने कोचित्त की वृत्तियों के निरोध को - योग कहते हैं ।
इसलिए इस जगह मन का ठहराना अवश्य ही है । जब तक मन की चंचलता न मिटेगी तब तक योगाभ्यास या और कार्य नहीं हो सकता है ।
इसलिए प्रसंगवश न ठहराने का दृष्टान्त दिखाते हैं, जिसका बुद्धिमान् पुरुष बुद्धि से विचार करें । वह दृष्टान्त इस तरह है
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