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जो समय बीत जाता है वह फिर कभी लौट कर नहीं आता ।
जाकर आनन्द को प्राप्त होता है ।
अथवा सोते हुए सर्प के समान कुण्डली नाड़ी है । उसको M के वास्ते पहले अपानवायु और प्राणवायु से विधिपूर्वक बीच की अग्नि के स्वरूप को तेज करे । अग्नि की तेजी से उसे जगाकर जैसे अति वेग से चलता हुआ सर्प समान गति को छोड़कर कुटिल गति से जाता है, वैसे ही करने वाला ज्योतिमयस्वरूप होकर सुषुम्ना मार्ग से लय हो जाता है ।
जैसे ताले में कुंजी लगाने से ताला खुलकर कपाट (किवाड़) खुल जाते हैं वैसे ही कुण्डली करके सुषुम्ना रूप कुंजी (ताली) से आत्म-स्वरूप कपाट खुल जाता है ।
दूसरी रीति से शक्ति-चालनादि का वर्णन
दूसरा प्रकार यह है कि वज्र - प्रासन लगाकर हाथों से पगों (पैरों) की एड़ी पकड़ कर कंद स्थान को दृढ़ता से पीड़न करे और उस वक्त में वज्रासन से ही धोंकनी- कुम्भक करके वायु को प्रचलित करे, उस वायु के प्रचलित होने से अग्नि प्रज्वलित होती है, उस प्रज्वलित अग्नि की गर्मी से वह बालरंडा मुख फाड़ देती है । उस समय भी सुषुम्ना करके योगश्वर अपने स्वरूप का आनन्द पाता है।
अथवा, नाभि स्थान में सूर्य नाड़ी को आकुंचन कर कुंडली को चलावे, या चार घड़ी पर्यन्त निर्भय होकर शक्ति चालन करे तो कुंडली कुछ सुषुम्ना में ऊपर को उठे तब प्राणवायु श्राप ही सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती है ।
इस शक्ति के चलाने में नौली चक्र जौर भस्त्रिका, कुम्भक और महामुद्रा ये तीनों बहुत उपयोगी है । जो पुरुष इनका विशेष रूप से अभ्यास करेगा वही इस बालरंडा को जगाकर सुषुम्ना के संग होकर अपने आत्मस्वरूप
आनन्द को प्राप्त करेगा । परन्तु ये सब बातें वायु के साधन से होती हैं ।
इसलिए वायु के नाम दिखाते हैं.
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-१ प्रारण २ अपान ३ समान ४ उदान
सर्व
५ व्यान ६ नाग़ ७ कूर्म ८ कृकल 8 देवदत्त १० धनंजय | ये दस वायु
शरीर में रहती हैं ।
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