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सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयमित रखना ही सच्ची अहिंसा है। [२१ न
यह हठ प्रदीपिका का लेख लिखा, अब 'गोरक्ष-पद्धति' का भी लेख लि
हैं
गोरक्ष-पद्धति की रीति से बज्रोली वर्णन "स्वेच्छया वर्तमानोऽपि, योगोक्त नियमविना । वज्रोली यो विजानाति, स योगी सिद्धिभाजनम् ॥१॥ तत्र वस्तुद्वयं वक्ष्ये, दुर्लभं यस्य कस्यचित् । क्षीरं चैकं द्वितीयन्तु, नारी च वशवर्तिनी ॥ २ ॥ मेहनेन शनैः सम्यगू कुंचनमभ्यसेत् । पुरुषोऽप्यथवा नारी, वज्रोलीसिद्धिमाप्नुयात् ॥ ३॥ यत्नतः शस्तनालेन, फूत्कारं वज्रकन्दरे । शनैः शनै प्रकुर्वीत, वायुसञ्चारकारणात् ।। ४ ॥ नारीभगे पतबिन्दुमभ्यासेनोर्ध्वमाहरेत् । चलितं च निजं बिन्दुमूर्ध्वमाकुष्य रक्षयेत् ॥ ५ ॥ एवं संरक्षयन् बिन्दु, मृत्यु जयति योगवित् । मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं बिन्दुधारणात् ॥ ६॥ सुगन्धो योगिनो देहे, जायते बिन्दुधारणात् ।। यावद् बिन्दुः स्थिरो देहे, तावत्काल भयं कुतः ॥ ७ ॥ चित्तायत्तं नृणां शुक्र, शुक्रायत्तञ्च जीवितम् ।
तस्माच्छुकं मनश्चैव, रक्षणीयं प्रयत्नतः ॥ ८॥ . ऋतुमत्या रजोऽयेवं, बीजं बिन्दुञ्च रक्षयेत् ।
मेण कर्षयेद्ध्वं सम्यगभ्यासयोगवित् । ६॥ इन श्लोकों का अर्थ इसलिये नहीं लिखते कि जैसा अर्थ 'हठप्रदीपिका' में है वैसा ही इनका भी है। श्लोकों का लिखना तो ठीक समझा, कुछ भेद होता तो अर्थ अवश्य ही लिखते, क्योंकि निष्प्रयोजन ग्रन्थ को बढ़ाना ठीक नहीं समझा । थोड़े ही से प्रयोजन निकले तो बहुत क्यों बढ़ावें ?
अब ऊपर लिखी हुई जो रीति है उससे योग करने वाले को ही योगीन्द्र समझते हैं यह उसका लिखना और ऐसे ही योगीन्द्र समझना असम्भव सा है,
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