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देवता और इन्द्र भी भोगों से तृप्त नहीं हो पाते।
[२११ - ऋतुमत्या रजोऽप्येवं, बीजं बिन्दुञ्च रक्षयेत् । मेढेण कर्षयेदूवं, सम्यगभ्यासयोगवित् ॥ ६१॥"
भाषा टीका "अब वज्रोली के आदि में इसका फल कहते हैं । जो योगाभ्यासी वज्रोली मुद्रा को विशेषकर अपने अनुभव करके जाने, सो योगी योगशास्त्र में कहे हुए ब्रह्मचर्यादि किये बिना अपनी इच्छा करके वर्तमान रहे, अणिमादि . अष्ट सिद्धि को भोगने वाला हो ॥ ८३ ॥ वज्रोली के अभ्यास में दो वस्तु कही है, एक तो दूध पीना दूसरी स्त्री प्राज्ञाकारी वशवर्तिनी हो ॥ ८४ ॥
वज्रोली मुद्रा का प्रकार यह है कि स्त्री-संग के पीछे बिन्दु को क्षरण कहां पड़ना, जिसको पुरुष अथवा स्त्री यत्नपूर्वक इन्द्रिय को ऊपर आकुंचन करके वीर्य को ऊपर खींचने का अभ्यास करे, तो वह वज्रोली सिद्ध होती है ।। ८५ ॥ अब वज्रोली की पूर्वांग क्रिया कहते हैं। चांदी की बनी हुई नाल को शनैः शनैः जैसे अग्नि सुलगाने को फूंक मारते हैं, वैसे ही फुकार से इन्द्रिय के छिद्र में वायु का संचार बारम्बार करे।
वज्रोखी की साधन क्रिया वज्रोली की साधन प्रक्रिया यह है कि सीसे की बनी हुई चिकनी हो, इन्द्रिय में प्रवेश करने के योग्य हो, ऐसी चौदह (चतुर्दश) अंगुल की शलाका करा करके उसको इन्द्रिय में प्रवेश कराने का अभ्यास करे । पहले दिन एक . अंगुल प्रवेश करे । दूसरे दिन दो अंगुल प्रवेश करे । तीसरे दिन तीन अंगुल प्रवेश करे। इस रीति से क्रम से बारह अंगुल प्रवेश हो जाय तो इन्द्रिय मार्ग शुद्ध होवे । अथवा चौदह अंगुल की शलाका बनवावे, जिसमें दो अंगुल टेड़ी और ऊंचे मुंह वाली होनी चाहिए, वह दो अंगुल बाहर स्थापन करे । इसके पीछे सुनार की अग्नि सुलगाने की नाल के सदृश नाल ग्रहण करके उस नाल का जो अग्रभाग उसको इन्द्रिय में प्रवेश की हुई नाल के दो अंगुल बाहर निकले हुए भाग के मध्य में प्रवेश कर फूत्कार करे । इस प्रकार भली भांति इन्द्रिय मार्ग शुद्ध हो जाय, तब पीछे से इन्द्रिय द्वारा जल को ऊपर चढ़ाने का अम्तास करे । जब जल का आकर्षण होने लग जाय, तब पहले
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