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आत्मा और शरीर दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
इस मुद्रा के करने वाले पुरुष को आलस्य, निद्रा, क्षुधा, तृषा, मूािदि विशेष नहीं होते हैं । तालु के ऊपर के सन्मुख जिह्वा लगाये हुए जो स्थिर होकर वह गले के छिद्रों में से पड़ता हुआ चन्द्र-अमृत का पान करता है वह सर्व कार्य की सिद्धि हृदय में धरता है, राग द्वेष की परिहरता है मात्र कर्मों से झगड़ता है, परन्तु अपने समान सर्व जीवों को जान किसी से लड़ता नहीं है, मध्यस्थभाव में प्रवृत्त रहता है । परन्तु इसकी पूर्ण रीति बिना गुरु के नहीं प्राप्त होती। वर्तमान काल में छापा होने से हठयोगादि की पुस्तकें बहुत प्रसिद्ध हैं । इससे कई योगी हो जाते हैं । परन्तु इन पुस्तकों से अपनी जान खो बैठते हैं। इसलिए यदि आत्मार्थी बनकर योगाभ्यास करने की इच्छा हो तो सद्गुरु की विनय, प्रतिपत्ति, शुश्रूषादि करो। जिससे तुम्हारे पर गुरु अनुग्रह करके उसे बताये, और आशीर्वाद देवे, जिससे तुमको यथावत् प्राप्ति हो जाये, इस खेचरी मुद्रा के विषय में 'हठप्रदीपिका' आदि ग्रंथों में जो प्रक्रिया लिखी है, वह प्रक्रिया यहां नहीं लिखी है। क्योंकि, उसमें गोमांस और अमर-वारुणी (मदिरा) का भक्षण करना और पीना लिखा है।
इसका कुछ खुलासा भी देते है कि छोटी हरडों को बारह पहर अथवा सोलह पहर तक कुंवारी गौ अर्थात् आठ दस महीने की बछिया के पेशाब में भिगोवे । जब वे दो दिन में भीजकर फूल जाये, तब उनको छाया में सुखा लें, सूर्य की धूप न लगने दें फिर उनको कोरे बर्तन में डाल कर सेकें। उन्हें इस तरह सेकें कि जल न जायें और कच्ची भीन रहें। उन हरडों में सेंधा लवण अन्दाज़ से मिलाकर चूर्ण बनावे । उससे सायं और प्रातः दोनों वक्त जिह्वा की जड़ में मालिश करे और दस-दस मिनट ऊपर लिखी रीति से जिह्वा को शनैः शनैः खेंचा करे, बाहर की तरफ ही ले जाया करे, फिर तीन महीने के वाद उलटकर गले की तरफ ही ले जाया करे, छः महीने इस रीति से करेगा तो जिह्वा कागल्या से आगे निकल जायेगी। नवमहीनों में छिद्रों के पास में पहुंच जायेगी। जिसकी इच्छा होवे वह विश्वास सहित इस काम को अंगीकार करे तो हमारे लिखे
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