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वर्तमान क्षण ही महत्त्वपूर्ण है अतः उसे सफल बनाना चाहिए ।
स्त्री तेरह या चौदह वर्ष की आयु में हो और जब वह लघुनीति करने उस समय गुदा को ऊपर प्राकुञ्चन करने से लघुनीति (पेशाब) की धार बन्द हो जाती है । और जब आकुंचन छोड़ते हैं तब धार निकलती है । इस रीति से जो मैथुनादि क्रिया करते हैं, तब वीर्य निकलते समय गुदा ऊपर को स्वयं ही आकुञ्चित हो जाती है, और वीर्य रुक जाता है, जब गुदा नीचे को होती है तब वह वीर्य निकलता है । यह सब प्राणवायु का ख्याल है । परन्तु वीर्य और पेशाब रुकने और निकलने का अनुभव सबको है । बल्कि कितने ही मनुष्य श्वास को रोक कर वीर्य को रोकते हैं, और किसी समय उसे रोकने से वीर्य रुककर घाव ( क्षत) कर देता है, जिस घाव के होने से सुजाक की बीमारी कहलाती है । यह अनुभव साधारण पुरुषों को भी हो रहा है ।
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और जो योगी जन हैं उनको यदि कभी कोई कारण (गर्मी आदि ) से वीर्य चलायमान हो जाय, तो उसको प्रारण अपान की एकता और नौली चक्र से कुंभक करके लिंग के ऊपर रोक लेते हैं, क्योंकि जिसको नौली चक्र यथावत् याद है वह पुरुष लिंग से और गुदा से द्रावण ( पिघला हुआ घृत, दुग्ध, जल और तेल) चढ़ा सकता है । सो घृत, दुग्ध, शहद आदि लिंग से चढ़ाना केवल लोगों को तमाशा दिखाना है, क्योंकि वीर्य निकल गया वह खराब हो गया, उसके चढ़ाने से सिवाय हानि के और कुछ लाभ नहीं होगा । इसलिए इस वज्रोली का मुख्य तात्पर्य यही है कि स्वर साधन करने वाले ऐसा कहते है कि लघुनीति चन्द्र स्वर में करे और बड़ीनीति ( पाखाना ) सूर्य स्वर में करे । लघुनीति को . वज्रोली रोक सकती है, यही इसका प्रयोजन है । क्योंकि जब पुरुष अथवा स्त्री पाखाना आदि को जाते हैं उस समय दोनों ही स्वर होते हैं । इस बात को सर्व . साधारण जानते हैं । कदाचित् गज डाल कर उसमें फूंकादि लगाकर लिंग को साफ करे, परन्तु जब तक उसको नोलीचक्रं न आता होगा, तब तक उससे बस्ती कर्म और वज्रोली कदापि न होगी ।
और जो इन ग्रन्थकारों ने ऐसा लिखा है, कि "जिसको वज्रोली होगी, उसी को खेचरी होगी और खेचर होगी तो वज्रोली होगी" यह बात भी ठीक नहीं है । क्योंकि इन दोनों का आपस में कुछ सम्बन्ध नहीं, बल्कि बिना वज्रोली
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