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२४] जो अपना काम समय पर कर लेते हैं वे बाद में पछताते नहीं।
या प्रथम ही योगाभ्यास के आरम्भ में अपथ्यभोजनादि अथवा स्नानादि क्रियाएं, और स्त्री का संग बिलकुल मना किया है। धर्मशास्त्रों में वा स्मृतियों में भी अनेक ऋषियों ने ऐसा ही लिखा है कि जिस जगह स्त्री का चित्र व मूर्ति हो, उस मकान में योगी, सन्यासी यति ब्रह्मचारी आदि को नहीं ठहरना चाहिए और जो कि स्त्री-विषय के आलंकारिक काव्य है उनको भी यति, ब्रह्मचारी, योगी, सन्यासी न पढ़े, क्योंकि पढ़ने से विकार उत्पन्न होता है यदि उस मकान में ठहरने और उस चित्र-मूर्ति को देखने से चित्त की चंचलता और विकार उत्पन्न होता है, तो स्त्री के पास में रहने से क्यों कर चित्त स्थिर रह सकता है ? और योनि में लिंग को देकर क्रिया करना
और वीर्य का निकालना और उसको भग में न पड़ने देना, अथवा न रुक सके और पड़ जाय तो उसका वायु के जोर से आकर्षण करके फिर स्तम्भ करना, इससे तो पहले ही न करना श्रेष्ठ है, क्योंकि पहले शरीर को कीचड़ मलकर फिर पानी से धोना, इससे तो कीचड़ न मलना ही श्रेष्ठ है। इस लिए यदि आदिनाथ, मच्छन्दरनाथादि योगियों ने इस बात को अंगीकार किया है, तो उनके योगीन्द्र होने में वा अमर होने में विवेक-सहित बुद्धि से विचार करने वाले को सन्देह होता है । सम्भव है कि स्त्री-संग करने से मोक्ष मानना, "कवलक" (कोलक) मतावलम्बियों के बिना और कोई मतावलम्बी स्वीकार न करेगा। कोलक मत वाले पांच मकार से मोक्ष मानते हैं । वे पांच मकार ये हैं-मांस, मदिरा, मछली, मैथुन, मुद्रा । वे इनकी अंगीकार करते हैं। उनके भी दक्षिणी, वामी, उत्तरादि, काचलियापन्थ, कूडापन्थ, अधरवीयं, आदि अनेक भेद हैं।
तब तक योग का सच्चा ज्ञान ही होता जब तक आत्मानुभव और अध्यात्म का आत्मार्थी गुरु न मिले। इसलिए मैं नम्रता-पूर्वक पाठकगणों को कहता हूं, कि जैसा गुरु मुझे मिला, और उन्होंने जो बातें मुझे बताईं, अनुभव कराया, दो मिनट में मानो अमृत का प्याला पिलाया, शासनपति श्री वीर भगवान् के निर्वाण-भूमि पर ध्यान करना फरमाया, मैंने भी उस जगह आकर उन्नीस सौ चौतीस की साल में आसन जमाया, ध्यान
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