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समदर्शी अपने पराये की भेद बुद्धि से दूर रहता है ।
निर्मल और तीक्ष्ण धार वाला शस्त्र लेकर उससे जिह्वा के नीचे जो नस है उसको पहले लवमात्र छेदे; फिर उसके ऊपर सेन्ध लूणं और हरों को पोसकर उस छेदी हुई जगह लगावे । परन्तु इस क्रिया करने वाले को दोनों वक्त लवण खाना मना है, तो भी हरें और लबण को लगा ले । फिर सात दिन के पीछे आठवें दिन कुछ अधिक छेदे । इस रीति से छः महीने पर्यन्त युक्ति से करे तो जिह्वा के मूल में जो नाड़ी है वह नाड़ी कपाल के छिद्र में जाने लायक होगी। इस रीति से पहले साधन करे । यह रीति ग्रंथों में लिखी है । परन्तु इसकी असल रीति तो यह है कि जिसमें शस्त्रादि से छेदने का कुछ प्रयोजन नहीं है, किन्तु वह रीति गुरु की कृपा के बिना मिलनी कठिन है और वह रीति शास्त्र द्वारा लिखी भी नहीं जाती, क्योंकि गुरु आदि तो योग्य अयोग्य देखकर युक्ति-क्रम बताते हैं, शास्त्र में लिखें तो योग्य अयोग्य की कुछ खबर न पड़े। और बिना योग्य के असल वस्तु नहीं दी जाती । हमने अपने गुरु की बताई रीति आजमाई है । बिना छेदन के जिह्ना अलग कराई है। एक दो जिज्ञासुओं को बताई भी है। उलटकर जिह्वा छिद्रों में पहुंचाई है।
खेचरी मुद्रा के गुण और प्रयोजन जब जिह्वा की नस अलग हो जाय, तब जिह्वा को तिरछी करके गले में ले जाय, और तीनों नाड़ियों के जो मार्ग अर्थात् नासिका के जो छिद्र, जिसमें इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नासिका के बाहर निकलकर मालूम होती हैं, उनके बन्द करने के वास्ते छिद्रों के ऊपर जिह्वा लगाकर छिद्रों को बन्द कर दे, जिससे इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना इन तीनों नासिका के बाहर न निकल सकें । इसका नाम खेचरी मुद्रा है। इसको कितने ही व्योम-चक्र भी कहते हैं, परन्तु यह व्योम-चक्र नहीं है, क्योंकि व्योम-चक्र भृकुठी के ऊपर है । इसके करने से यह गुण है कि यदि तालु के ऊपर के छिद्रों में लगी हुई जिह्वा, एक घड़ी मात्र भी उस जगह स्थिर रहे, तो सर्प से लेकर जितने जहरीले जानवर हैं उनका जहर दूर करने की शक्ति उस पुरुष को प्राप्त हो जाती है। उसको किसी जानवर का ज़हर (विष) नहीं चढ़ता और
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