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एक अधर्म ही ऐसी प्रकृति है जिससे आत्मा क्लेश पाता है ।
__ महामुद्रा के गुण. . . जो पुरुष इसका अभ्यास करने वाले हैं, उन पुरुषों को पथ्य-अपथ्य का भय करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण कटुक, खटाई आदि जो भोजन करेगा सो ही पच जायेगा । ऐसी कोई चीज़ नहीं है कि उसको हज़म न होवे, क्योंकि साधु की गोचरी में गृहस्थ के घर से सब तरह की निरसादि चीज़ आती है। सो इन क्रिया करने वालों को हजम हो जाती है; किसी रोगादि को उत्पन्न नहीं करती है।
. २ महाबन्ध मुद्रा अन्य मतों की रीति का भी वर्णन कर देते हैं कि वाम चरण की एड़ी योनिस्थान में लगा कर फिर वाम चरण को जानु के ऊपर दक्षिण चरण को धरे, उसके बाद पूरक करे; फिर हृदय में ठोड़ी लगाकर जालंधर बन्ध लगावे, और मूलबन्ध लगाकर यथाशक्ति कुम्भक करके मंद-मंद रेचन करे । इसका गुण हठप्रदीपिका या गोरक्षपद्धति में देखो।
३ महावेध मुद्रा ___ इसका विधान यह है कि महामुद्रा में स्थित, जिसकी एकाग्र बुद्धि है ऐसा योगी नासिका पुट से पूरक करके कण्ठ की जालन्धर मुद्रा से वायु की ऊपर नीचे गमन रूप जो गति उसको रोककर कुम्भक करे, और पृथ्वी में लग रहे हैं तालुआ जिनके, ऐसे दोनों हाथ समान करके, फिर योनि-स्थान में लगे हुए एड़ी वाले पांव के साथ हाथों के सहारे कुछ ऊपर उठकर फिर मन्द-मन्द भूमि में ताड़न करे,इड़ा पिंगला दोनों को उल्लंघन करके सुषुम्ना के मध्य में वायु प्राप्त हो । चन्द्र, सूर्य, और अग्नि में अधिष्ठित नाड़ी जो इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, उनका सम्बन्ध मोक्ष के लिए होता है। निश्चय करके प्राण वियोग की अवस्था अर्थात् मृतसी अवस्था प्राप्त होती है। उसके पीछे वायु को नासिका-पुटन करके धीरे-धीरे रेचन करे। परन्तु इस जगह इतना विशेष है कि योनि-स्थान में एड़ी लगी रहने से जब वह हाथों के बल से ऊपर उठेगा तो आसन भंग हो जाने से मूलबन्ध यथावत् न रहेगा; इस लिए इस मुद्रा के अभ्यास में पद्मासन लगावे, और मूलबन्ध को कम न
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