________________
आत्मा अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है।
[२०१
है। इसमें कुम्भक नहीं कहा तब भी कुम्भक अवश्य ही करे; इसके करने -- वाले पुरुष के रूप; लावण्य और शरीर की पुष्टि होती है; क्षुधा तृषा आदि भी कम लगते हैं; निद्रा और आलस्य भी नहीं होता है ।
४ सीतली मुद्रा इसका विधान इस प्रकार है कि पक्षी की नीचे की चोंच के समान अपनी जिह्वा को होठों के बाहिर निकालकर वायु को खींचकर पूरक करे, और फिर मुख बन्द करके कुम्भक करे। फिर शनैः शनैः नासिका के छिद्रों से, वायु का रेचन करे । इस कुम्भक करने वाले को गुल्म और प्लीहा अर्थात् तापतिली और पित्त ज्वारादिक रोग नहीं होते हैं। यह मुद्रा भोजन या जल की इच्छा को बढ़ाने वाली है और सर्प के विष की अथवा अन्य विष अर्थात् जहर की शान्ति करने वाली है।
५ भस्त्रिका कुम्भक भस्त्रिका नाम धौंकनी का है। इसका विधान यह है कि सतर (सीधा) बैठकर दोनों हाथ दोनों जंघाओं के ऊपर रखे और मुख अर्थात् होठों को ऐसा मिलावे कि जिससे हवा होठों में होकर न निकले; फिर नासिका के दोनों छिद्रों से पूरक करे, फिर रेचन करे, इसी प्रकार बारम्बार रेचन और पूरक शीघ्रता के साथ करे, और बीच में दम न लेने पावे । जैसे लुहार लोहे को गरम करता है, और जब लोहा ताव पर आता है उस वक्त अग्नि को इस कदर धोंकता है, कि बीच में दम न ले। वैसे ही जब तक शरीर में परिश्रम होकर थकावट न मालूम हो तब तक पूरक रेचन करे । जब थक जावे तब सूर्यस्वर से पूरक करे फिर कुम्भक करके बन्धपूर्वक चन्द्रनाड़ी से रेचन करे । परन्तु इस जगह कुम्भक करते समय जीमने (दक्षिण) हाथ के अंगूठे से सीधा नासिका का दक्षिण छिद्र बन्द करे, और अनामिका और कनिष्ठिका अंगुली से नासिका का वाम छिद्र बन्द करे । कुम्भक पूर्ण होने के बाद चन्द्रस्वर से रेचन करे, फिर चन्द्र स्वर से ही रेचन और पूरक बारम्बार करे। पिछली रीति के अनुसार पूरक • रेचन करते करते थकने लगे तो डाबे (वाम) स्वर से पूरक करे और अना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org