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जिसकी दृष्टि सम्यक् है वह कर्त्तव्य विमूढ़ नहीं। . [१EE में इसके गुण आप से आप प्रकट हो जाते हैं, अधिक कहने की कोई आवश्यकता नहीं है।
४-जिह्वा बन्ध जिह्वाबन्ध की विधि यह है, कि जालन्धरबन्ध अर्थात् कण्ठ को झुकाकार ठोड़ी को हृदय में स्थापित करें और दोनों राजदन्तों (मुख के सामने के ऊपर के जो दांत हैं उन) पर जिह्वा को काढ़कर लगावे उसी का नाम जिह्वाबन्ध है । इस जिह्वा बन्ध से एक सुषुम्ना नाड़ी रहित जो सम्पूर्ण नाड़ियां हैं उनके ऊपर वायु की गति रुक जाती है, इसलिए इसको कोई जालन्धर बन्ध भी कहते हैं । जाल नाम नसों का है उनका जो बांधना उसी का नाम जालन्धर है । यह ऊपर लिखी हुई बन्धों की रीति के साथ जो पुरुष प्राणायाम करेगा, उसी को हठयोग की प्राप्ति होगी और हठयोग से ही राजयोग की प्राप्ति होती है । इस वास्ते आत्मार्थियों को इसमें भी परिश्रम करना चाहिये । परन्तु इन बन्धों में गरु की अपेक्षा जरूर है, क्योंकि गुरु यथावत् रीति करके दिखावे तो जिज्ञासु असल भेद पावे । जिह्वाबन्ध, खेचरीमुद्रा से सम्बन्ध रखता है, वह खेचरीमुद्रा तो आगे दिखलावेंगे। उस खेचरीमुद्रा को भी कितने ही लोग जालन्धरबन्ध कहते हैं।
कुम्भकों के नाम कुम्भकों के नाम ये हैं-१. सूर्यभेदन, २. उज्जाई, ३. सीत्कारी, ४. सीतली, ५. भस्त्रिका, ६. भ्रामरी, ७. मूर्छा, और ८. प्लावनी।
१-सूर्यभेदन का वर्णन सूर्यभेदन की रीति यह है कि मूलबन्ध करके पूरक के अन्त में शीघ्र ही जालन्धगबन्ध लगावे । कुम्भक के अन्त में और रेचन की आदि में उड़ियानबन्ध लगावे। .. इस रीति से सूर्यस्वर से प्राणायाम करे। जो बन्ध के साथ प्राणायाम करेगा उसको वायु-प्रकोप कभी नहीं होगा और इसमें इतना विशेष है, कि पूरक शीघ्रता से भी करे तो कुछ हर्ज नहीं, परन्तु रेचन धीरे-धीरे से करे। यदि शीघ्रता करेगा तो कुम्भक की रुकी हुई वायु शीघ्रता होने से
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