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जो संग्रह की भावना रखता है वह साधु नहीं।
मिका और कनिष्टिका अंगुली से शीघ्र ही बन्द कर ले । कुम्भक पूर्ण होने के पीछे बन्धकपूर्वक अंगूठा हटाकर जीमणे (दक्षिण) स्वर से रेचन करे । फिर उस जीमणी (दक्षिण) नासिका से बारम्बार पहली तरह से रेचनपूरक करे । जब थकने लगे तब पूरक करे, अंगूठे से छिद्र को बन्द कर ले, और ऊपर लिखी रीति से फिर रेचन करे। इस रीति से इस कुम्भक का वर्णन किया है।
इसका गुण यह है कि वात, पित्त, कफ इन तीनों प्रकार के रोगों को दूर करे और तीनों को समान रखे, और जठराग्नि को दीप्त करे, कुंडली नाड़ी सोती हुई को शीघ्र ही जगा दे । जो पुरुष इसको बारम्बार करेगा, उसको नाना प्रकार की सिद्धियां, और शीघ्रता से प्राणायाम की सिद्धि होगी। शरीर में जो अपानादि वायु है उनको बाहर फेंकना उसका नाम रेचक हैं, और भीतर को ले जाना उसका नाम पूरक है। और यथाशक्ति जो प्राणों को रोकना उसका नाम कुम्भक है । - इन कुम्भकों के करने से कुण्डली जो आधारशक्ति है वह जागृत होती है।
६ भ्रामरी कुम्भक इस भ्रामरी कुम्भक का विधान यह है कि (भ्रमरी) चौइन्द्री (चतुरिन्द्रिय) होती है । वह तेइन्द्रिय लट को लाकर अपने घर में बन्द कर शब्द सुनाती है । इह शब्द के सुनने से वह लट भ्रमरी हो जाती है, ऐसा श्री आनन्दधनजी महाराज कहते हैं। वे इक्कीसवें श्रीनमिनाथ भगवान् के स्तवन की सातवीं गाथा में लिखते हैं कि
"जिन स्वरूप थई जिन आराधे, वैसे ही जिनवर होवे रे। भृगी इलिका ने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे ॥७॥" जैसा उस भ्रमरी का शब्द है, वैसे ही शब्द-सहित पूरक करे, फिर कुंभक करे, फिर रेचक करे, परन्तु भ्रमरी रूप गुंजार शब्द को तीनों जगह साथ में रखे। इस राति की कुम्भक करने से नाद की खबर जल्दी से हो जाती है । जब नाद की खबर यथावत् हुई, तब चित्त नाद में लगा हुआ शीघ्रता से समाधि को प्राप्त होगा।
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