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बुद्धिमान हितकारी और सर्वप्रिय वाणी बोली ।
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अलबत्त, भोजन करने के दो पहर ( प्रहर) अथवा डेढ़ पहर के बाद जी नौलीचक्र करेगा उसको कुछ हानि न होगी । इस रीति से यह दसों क्रियाओं का वर्णन कर चुके हैं । इन दसों क्रियाओं में धर्म का लेश भी नहीं है । हां, यह परम्परा से धर्म का साधन जो शरीर उसमें रोगादिक की उत्पत्ति को दूर करने के लिए बिना ही वैद्य, हकीम अथवा धन खर्च रोग को निवारण करने का हेतु है । इसलिये गुरु परम्परा से यथावत् याद हो तो रोगादि दूर करने का कारण है, न कि धर्म का ।
बन्ध के प्रकार
अब बन्ध का वर्णन करते हैं, क्योकि जो पहले ही बन्ध का वर्णन न करें तो कुम्भक- मुद्रा प्रारणायाम आदि का वर्णन करना व्यर्थ हो जायेगा, बिना बन्ध के लगाये कुम्भक आदि कोई क्रिया नहीं होती । इसलिये बन्ध का पृथक कहना आवश्यक है । वह बन्ध चार प्रकार से होता है १ . मूलबन्ध २. जालन्धरबन्ध, ३. उड़ियानबन्ध, ४. जिह्वाबन्ध |
१ - मूलबन्ध
इस मूलबन्ध की विधि यह है, कि एड़ी से योनि स्थान को दबाकर गुदा को संकोचित करे । फिर अपान वायु जो कि नीचे को जाने वाली है, उसको ऊपर चढ़ावे, उसका नाम मूलबन्ध है । अथवा एड़ी को गुदा के नीचे रखे, और अपानवायु को ऊर्ध्वगमन अर्थात् सुषुम्ना नाड़ी में प्राप्त करे, इसी को मूलबन्ध कहते हैं ।
मूलबन्ध के गुरण
अधोगति (नीचे को जाने वाली ) अपान वायु को तो ऊपर करे और दूसरी जो प्रारणावायु ऊर्ध्वगामनी ( ऊपर जाने वाली ) है उसे नीचे करे । इन दोनों वायुओं को मिलाकर एक करे । उस एकता के होने से वायु का सुषुना ( नाड़ी) में प्रवेश होता है । जो करने वाले पुरुष हैं उस वक्त उनको नाद की प्रतीति होती है । उस नाद का वर्णन आगे करेंगे। दूसरा प्राण और अपान के एक हो जाने से वायु विशेष कर पंखे के समान चलती है । इसलिए उससे जठराग्नि के कुण्ड के ऊपर जो मल रूपी छार (राख) है,
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