________________
ब्रह्मचारी कभी अति भोजन न करे।
मांस ग्रन्थि विशेष) की पूर्व तरफ के ऊपर तालवे को अगूठे से मर्दन करें, अर्थात् धीरे-धीरे मले । उस जगह एक नाड़ी-नस है, उस पर अंगूठा लगाने से पानी बाहर निकल पाता है। यदि गुरु बतावे तो इसमें कोई परिश्रम नहीं है, और बिना गुरु के अभ्यास करे तो दो या तीन दिन में उस नाड़ी को पा सकता है, क्योंकि अभ्यास भी बड़ी चीज है। जैसे हाथी सूंड से पानी पीकर मुंह से निकलता है यह भी वैसा होने से इसका नाम गजकर्म कहते हैं। जिसको सर्दी हो वह गरम पानी पीवे, वह भी अधिक गर्म न होना चाहिये, अधिक गर्म होने से खून बिगड़ जाता है, और जिसको गर्मी हो अथवा खून बिगड़ा हुआ हो तो वह बहुत ठण्डा जल हिम की तरह (बर्फ की नाई) करके पीये तो चालीस दिन में उसको आराम हो जायेगा, किन्तु खाने में भी पथ्य रखना आवश्यक है।
अब ऊपर बतलाई हुई जो चार क्रियाएं लिख चुके हैं उन्हें किसी को करते हुए देखकर मुग्ध न हो जाना चाहिए, क्योंकि वर्तमान में कितने ही दुःख-गर्भित मोह गर्भित-वैराग्य वाले भोले जीवों को दिखाकर लोगों का माल ठगते हैं, लोगों में अपने को योगी बताते हैं, इन क्रियाओं में योग का लेश भी नहीं है, इसलिये हम पाठकगण को दिखाते हैं, इन ठगों के चाल' से बचाते हैं।
५-नौलीचक्र अब नौलीचक्र का स्वरूप दिखाते हैं—पहले उत्कटासन (उक्कडू) वैठे, अथवा खड़ा होकर दोनों हाथ घुटनों पर रखे, अथवा नीचे से पिंडली को पकड़े, इन तीनों रीतियों में से किसी एक रीति से करे । फिर पेट को पीठ की तरफ खेंचे जब वह पेट कमर में जाने लगे उस समय गुरु की बताई हुई जो रीति है, उससे वायु अर्थात् श्वास से उन दोनों नलों को उठावे, कि जैसे दोनों हाथों को चौड़े करके अलग से मिलाते हैं और अंजलि से पानी खींचते हैं, इस रीति से कुल पेट-भाग तो पीठ में लगा रहे, और जो नलों का भाग है सो उठ आवे, तब बीच में तो वह नल जेवड़ी के सदृश खड़े हुए हों और इधर उधर चारों ओर का जो पेट का भाग है वह पीठ से लगा हुआ रहे ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org