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गुरुजनों के अनुशासन से क्षुब्ध न हों।
[१८५ की सर्वज्ञता से किंचित् भी बाहिर नहीं है । क्योंकि सर्वमतावलम्बी अज्ञानके जोर से अपने तत्त्वों की मुख्यता लेकर वर्तमान काल में दुःखभित मोहगर्भित वैराग्य वाले और जाति कुल के जैनियों की व्यवस्था देखकर हंसी करते हैं कि हमारे बिना तत्त्वादि का साधन तुम्हारे मत में नहीं है । इस तरह श्रवण करके चित्त में आया कि इस वीतराग सर्वज्ञ देव से कोई बात छिपी नहीं । परन्तु दिन प्रतिदिन योग्यता की हानि होने से गुरू परम्परा छिपती गई और अज्ञानियों का जोर बढ़ता गया । इसलिये उन अज्ञानियों का मुख बन्द करने के लिए और चिन्तामणि रत्न समान जिनधर्म की उन्नति के वास्ते मैंने कहा है, सद्गुरु का उपदेश भी पाया है। इस रीति के लुप्त हो जाने का किंचित कारण दिखाता हूं। - श्री महावीर स्वामी से लेकर श्री मद्रबाहु स्वामी तक चौदह पूर्व विद्या और गुरु-परम्परा यथावत् चली आई । इसलिये श्रीभद्रबाहु स्वामी ने नेपाल देश के पहाड़ों में जाकर प्राणायाम सिद्ध किया। श्री कल्पसूत्र की टीका आदि में ऐसा लिखा है कि, जिस समय श्री यशोभद्र सूरि जी देवलोक को प्राप्त हुए, और साधुनों को विद्या पढ़ाने वाला प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी के सिवाय कोई दूसरा न देखा, तब श्रीसंघ ने मिलकर भद्रबाह स्वामी को विनयपूर्वक आवेदन किया और कहा कि हे भगवन् ! श्रीयशोभद्र सूरि जी महाराज तो देवलोक प्राप्त हुए और स्थूलभद्रजी आदि अनेक साधु विद्या पढ़ने योग्य हैं ; इसलिए आप पधारो, क्योंकि आप के सिवाय दूसरा कोई विद्या पढ़ाने वाला नहीं हैं । यह खबर श्रीभद्रहाहु स्वामी ने सुनकर कहला भेजा कि मैं महाप्राणायाम की साधना करता हूं, इस कारण मेरा आना नहीं हो सकेगा। साथ में यह भी कहला भेजा कि जो पढ़ने वाले साधु हों उन्हे यहां भेज दो, मैं उन्हें पढ़ाऊंगा, किन्तु प्राणायाम सिद्ध हुए बिना मेरा वहां प्राना न होगा ; इसलिये श्रीसंघ को उचित है कि उन साधुओं को मेरे पास भेज दे । प्रात्मा के साधन से किसी को नहीं डिगाना चाहिए, जिस रीति से दोनों कार्य सिद्ध हों उसी रीति से वर्तना चाहिए।
अनन्तर श्रीसंघ ने महामुनि स्थूलभद्रादि ५०० (पांच सौ) साधुओं को
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