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क्षमा संतोष सरलता नम्रता ये चार धर्म के द्वार हैं ।
किया है और इसमें जलादि का आरम्भ बहुत है इसलिए न करना चाहिए । परन्तु मेरा कहना है कि वर्तमान काल में जनों में योगाभ्यास करनेवाले ही नहीं हैं । क्योंकि पहले हम योग्यता या अयोग्यता के विषय में लिख चुके हैं । दूसरा जो मनुष्य जल के अधिक खर्च के विषय में कहते हैं कि जल का खर्च होता है, उन लोगों ने अन्यमत वालों को देखा है, बहुत . अपने गुरु आदि महोदयों को नहीं देखा, इसलिए वे ऐसा कहते हैं । परन्तु देखीये नोली १ बस्ती २ गणेश कर्म ३ वागी ४ त्राटक ५ इनमें तो जल का काम नहीं, किन्तु बस्ती में अलबत्ता सेर डेढ़ सेर जल का काम है, लाभ इनमें अधिक है, क्योंकि जौ इन क्रियाओं को गुरुगम से सीखेगा तो दवा औषध के लिए हकीम, वैद्यादि की उसे चाहना न रहेगी, और ये क्रियायें कोई नित्य प्रति
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करने की तो है ही नहीं; जब कभी रोगादि हो तो इन क्रियाओं को करे, और कितनी एक क्रियायें नित्य करे तो रोगादि के उत्पन्न होने की सम्भावना -तक नहीं होती ।
क्रियाएं करने की रीति
अब क्रिया करने की रीति दिखाते हैं कि क्रिया किस तरह करनी चाहिए |
प्रथम नेती क्रिया
कच्चा सूत मुलायम सवा या डेढ़ हाथ लम्बा हो, और इक्कावन तार अथवा इक्कोत्तर तार इकट्ठे मिलावे, फिर उस लम्बे डेढ़ हाथ में से ऐंठकर आठ अंगुल तो बट ले और शेष खुला रखे । परन्तु दोनों सिरों की ओर से खुले हुए रखे और बीच में से बटे, फिर उसके ऊपर किंचित् मोम लगावे जिससे वह सूतकठिन बना रहे और मुलायम भी बना रहे। जब प्रातःकालनेती क्रिया करे तब उस सूतको उष्ण जल में भिगोवे और वह फिर अपनी नाक में गेरे, जब वह गले के छिद्र में पहुंचजाए, उस समय मुंह में हाथ डालकर उस डोरा (धागा) को धीरे-धीरे खेंचकर मुख के बाहर निकाले, और वह बटा हुआ तो एक हाथ में और खुला हुआ छोर दूसरे हाथ में पकड़े । इस तरह दोनों हाथों से धीरे-धीरे ऐसे खीचे कि जैसे छाछ (मट्ठा) बिलोते हैं, इस प्रकार
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