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असंयमसे निवृत्ति और संयममें प्रवृत्ति यही भद्र पुरुष का लक्षण है। [२७ . . अर्थ-पांच प्रकार की मुद्रा, तीन प्रकार के बन्ध, चौरासी प्रकार । आसनों को जान लेना चाहिए । इनमें से दो आसन मुख्य हैं-मूलासन, पद्मासन-७५ बनाने में सहायक है।
आसन वह है जिसमें सुखपूर्वक निश्चलता से अधिक से अधिक समय ध्यान में बैठा जा सके।
पातंजल योग शास्त्र में आसन सिद्धि का उपाय बतलाते हैं"प्रयत्न-शैथिल्यानन्त्य समापत्तिभ्याम्' अर्थात् प्रयत्न शिथिलता तथा अनन्तता में चित्त की तद्रुपता द्वारा आसन सिद्ध होता है ।
शरीर को प्रयत्न शून्य करना, शिथिल करना तथा अनन्तता में चित्त को तदाकार करने से चित्त निर्विषय होकर स्थिर हो जाता है यह देह और मन का शिथिलीकरण (Profound Relaxation) है। जिसमें देह और मन क्रिया रहित होता है ।
आसन को सिद्धि से द्वन्द्वों का आघात नहीं लगता। शरीर को साधना के योग्य बनाना यह प्रासन का अंग है।
अलग-अलग साधनाओं के लिए शरीर और मन के विशेष प्रकार के सम्बन्ध के लिए जुदा-जुदा अासन आवश्यक हैं ।
योगाभ्यास के समय साधक के शरीर में नयी-नयी क्रियाएं उत्पन्न होती हैं । जिससे मेरुदण्ड, छाती, गला, मस्तक आदि सुयोग्य प्रकार से रहें यह आसन का हेतू है। - प्राणायाम आदि करने वाले साधक को मेरुदण्ड अवश्य सीधा रखना चाहिए । नहीं तो हानि होगी। ___आसन द्वारा नस-नस में रक्त का प्रवाह चालू होता है । सब इन्द्रियां और नाड़ियां जड़ता का त्याग कर चैतन्यमय बनती हैं।
- कठोर ब्रह्मचर्य की साधना में जो असमर्थ हैं वे सिद्धासन न करें। सिद्धासन संसार विमुख साधकों के लिए सर्वश्रेष्ठ है।
शरीर स्वास्थ्य के लिए शीर्षासन लाभदायक है परन्तु ध्यान में
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