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मन रूपी हाथी के लिए शान बंकुश सदृश है
षट् कर्म (चौपाई) अस्तव्यस्त वायु संचरे । कारण विशेष षट् कर्मः" करे ॥
नेती, धौती, नौली कही। भेद चतुर्थ त्राटक फुनि लही ।। ७६ ॥ यह सहायक नहीं।
इसलिये इस ग्रन्थ के कर्ता चिदानन्द जी ने ध्यान के लिए दो आसनों का ही वर्णन किया है।
जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र जी योग शास्त्र में फरमाते हैं कि"जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः। . तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यान साधनम्" ।
जिस-जिस प्रासन के करने से मन स्थिर हो, ध्यान के साधनभूत वह-वह आसन ही करना चाहिये । अमुक आसन ही करना चाहिये ऐसा कोई प्राग्रह नहीं है । सुख पूर्वक लम्बे समय तक चित्त समाधि में बैठा जा सके वह आसन करने योग्य है। इसलिए सब प्रासनों में अपने योग्य प्रासन
करना चाहिए। (आसनों के भेदों का स्वरूप परिशिष्ट में देखें।) २५-षट्कर्म-(१) नौलिकर्म--कन्धों को नवाये हुए अत्यन्त वेग के साथ
जल भ्रमर के समान अपनी तुन्द को दक्षिण वाम भागों से भ्रमाने को नौली कर्म कहते हैं । (२) वस्तिकर्म-यह दो प्रकार का है-पवन वस्ति, जल वस्ति । नौली कर्म द्वारा उपान वायु को उपर खींच पुनः मयूरासन से त्यागने को पवन वस्तिकर्म कहते हैं । पवन वस्ति पूरी सध जाने पर जल वस्ति सुगम हो जाती है । (३) धौती कर्म-चार अंगुल चौड़े
और पन्द्रह हाथ लम्बे महीन वस्त्र को गरम जल में भिगोकर गुरुपाष्ट मार्ग से धीरे-धीरे प्रतिदिन निगलने और निकालने की क्रिया को धौती कर्म कहते हैं । (४) नैती कर्म-जल को नाक द्वारा खेंचने को नैतीकर्म कहते हैं । (५) त्राटक कर्म-एकाग्र चित्त हुआ मनुष्य निश्चल दृष्टि से लघु पदार्थ को तब तक देखे जब तक अश्रु पड़ते न होवें। (६) कपाल कर्म-लोहार की भारी के समान अत्यन्त शीघ्रता से क्रमश: रेचक पूरक प्राणायाम को शांति पूर्वक करना ।
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