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मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र है; जन्म से नहीं ।
चार पुरुषार्थ
धर्म र्थ अरु काम शिव, साधन जग में चार ।
व्यवहारे व्यवहार लख, निहचे निजगुण धार ॥ ३७२ ॥ अर्थ — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार साधन जगत में हैं । बहिर्ह ष्टि लोग इनका जगत के व्यवहार में आने वाली प्रवृत्तियों का अर्थ लगाते हैं । तथा अर्न्तदृष्टि महात्मा इन चारों का निज गुरगों का अर्थ धारण करते हैं - ३७२ मूरख कुल आचार को, जानत धर्म सदीव ।
वस्तु सुभाव धर्म सुधी, कहत अनुभवी जीव ॥ ३७३।।
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अर्थ — अज्ञानी लोग धर्म का अर्थ कुलाचार करते हैं किन्तु बुद्धिमान और अनुभवी लोग धर्म का अर्थ वस्तु स्वभाव ( " वत्थु सहावो धम्मो " ) करते हैं । खेह खजाना को अर्थ कहत अज्ञानी जीव ।
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कहत द्रव्य दरसाव को, अर्थ सुज्ञानी भीव || ३७४।।
अर्थ- - अज्ञानी लोग धन दौलत को अर्थ कहते हैं, परन्तु ज्ञानी पुरुष द्रव्य
के स्वरूप के समझने को अर्थ कहते हैं -- ३७४
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दम्पति रतिक्रीड़ा प्रत्ये, कहत दुर्मति काम ।
काम चित्त अभिलाष को, कहत सुमति गुरण धाम ।। ३७५ ।।
अर्थ — अज्ञानी लोग विषय सेवन — रति क्रीड़ा को काम कहते हैं, किन्तु ज्ञानी लोग चित्त की अभिलाषा को काम कहते हैं - ३७५
इन्द्रलोक को कहत शिव, जो आगम हंग हीन ।
बन्ध प्रभाव अचल गति, भाषत नित परवीन ॥ ३७६ ॥
अर्थ- -अज्ञानी लोग इन्द्रलोक को शिव कहते हैं परन्तु ज्ञानी महात्मा कर्म बन्धन से सर्वथा छूट जाने से स्थिर गति अर्थात् जहां जन्म-मरण का सर्वथा अभाव है ऐसे मोक्ष को शिव कहते हैं - ६७६
इम अध्यातम पद लखी, करत साधना जेह | चिदानन्द निज धर्म नो, अनुभव पावे तेह || ३७७॥
अर्थ - इस प्रकार अध्यात्म पद को जान कर जो प्राणी साधना करते हैं वे आत्मा के अनन्त आनन्द रूप निज धर्म का अनुभव प्राप्त करते हैं - ३७७
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