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जीवन सूत्र टूट जानेके बाद फिर नहीं जुड़ पाता है ।
सम्मत्त म्मि उ लद्धे, पलियपहुत्तेण सावओ हुज्जा।
चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतया हुन्ति ।।२।।" ... इस रीति से स्थिति-भेद करके ऊपर जैसे-जैसे बढ़े वैसे-वैसे ही आत्म-वीर्य में जो उल्लास पैदा होता है, इसे ही धर्म-संन्यास योग कहना चाहिए। यही योग पारमार्थिक है --तात्त्विक है, इसीलिए इसको पहले कहा है। परन्तु कोई समय दीक्षा ग्रहण करने के समय इसको अतात्त्विक भी कहा है; क्योंकि उस समय दीक्षा सन्मुख होती है, किन्तु उसे अभी ग्रहण नहीं की है। इसलिए यहां ज्ञानरूप प्रतिपत्ति विशेष है, परन्तु धर्म-संन्यास सामर्थ्य का अधिकारी भव-विरत होना चाहिए। शास्त्रों में कहा है कि दीक्षा का अधिकारी आर्यदेश में उत्पन्न हो, विशिष्ठ जाति और कुल की मर्यादा वाला हो, शुभ-कर्म करने की बुद्धि रखता हो और प्रपञ्च-शून्य हो। प्रात्म-परिणाम भी उसका ऐसा विचार करने वाला हो कि-मनुष्यपन मिलना दुर्लभ है, सम्पत्ति चंचल है, विषय दु:ख के हेतु हैं और अन्त में विरस हैं जहां संयोग है वहां वियोग अवश्य है, शरीर मरण सहित है, और संसार का विपाक दारुण है । इस तरह संसार को गुण-शून्य और विरस विचारता हुअा सहज विरक्त हो जाय, जिससे क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्यादि स्वल्प हों, जो यौवन में भी निर्विकार हो, जो राजा या मुसद्दी आदि बहुमान्य हो, किसी से द्रोह न करने वाला हो, श्रद्धावान् हो, ज्ञान-योग का अधिकारी और प्रव्रज्या का आराधन करने वाला हो, ऐसा पुरुष धर्म-संन्यास के योग्य है । ऐसा व्यक्ति साधु बनने के लिये उपयुक्त है।
दूसरा योग संन्यास-सामर्थ्य एकान्त पारमार्थिक-तात्त्विक ही है, क्योंकि क्षपक-श्रेणि के प्रारम्भ से लेकर केवलज्ञान उत्पन्न होने तक तथा शैलेशी अवस्थागत योगनिरोध के समय तक योगी की अवस्था को योग-संन्याससामर्थ्य कहा जाता है।
इन तीनों ऊपर के कहे हुए योगों में से प्रथम योग भव्य मिथ्यादृष्टि को होता है और दूसरा योग ग्रन्थिभेदन करने के बाद सम्यग्दृष्टि, देशव्रती प्रमुख को होता है । और तीसरा योग दीक्षा के सन्मुख भव-विरक्त की अयो
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