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किसी बातको जान लेने मात्रसे कार्यकी सिद्धि नहीं हो जाती ।
चार भागों में से दो भाग के अन्दाज गृहस्थ. के. यहां से आहार अर्थात् पका हुआ ( रन्धा हुआ) अन्न लावे, और एक भाग जल लावें, सो उन तीनों हिस्सों से अपनी उदर - पूर्ति करे, एक भाग उदर का खाली रखे । खाली रखने का प्रयोजन एक तो वीतराग देव की आज्ञा है कि - आत्मार्थी साधु हमेशा ऊनोदरी तप करे, पशु की तरह ठूंस-ठूंसकर उदर को न भरे ।
दूसरा प्रयोजन यह है कि पेंट में एक भाग खाली रखने से श्वास उछ्वास की गति ठीक रहती है । क्योंकि यदि अन्न और जल से सम्पूर्ण पेट भर लेगा तो श्वासोच्छ्वास वायु का श्राना जाना कदापि ठीक न रह सकेगा, यह सर्वजन - अनुभूत है कि अन्न के कम खाने वालों का शरीर प्रफुल्लित श्रीर श्रालस्य रहित रहता है और जो मनुष्य पेट भर लेते हैं उनको थोड़ी देर बाद ही प्रालस्य आ जाता है । जो लोग केवल अन्न अर्थात् आहार से ही पेट भरते हैं और पीछे से पानी पीते हैं उनका तो श्वासोछ्वास बहुत तकलीफ से निकलता है, दूसरे लोग भी देखकर कहते हैं कि आज तो माल खूब खामा । अजीर्ण होने से स्वास्थ्य पर पानी फिर जाता है । जब गृहस्थों को भी मिताहारी होना चाहिये तब योगी के लिये विशेष क्या कहें । इसलिये ऊपर लिखे अनुसार भोजन करना चाहिये - और जो योगाभ्यास करने वाले साधु हैं वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार भिक्षावृत्ति के वास्ते एक बार गृहस्थ के घर जावें, अपनी उदर-पूर्ति के लिये शुद्ध आहार पानी लावें, परन्तु गृहस्थ के घर बारम्बार न जावें । क्योंकि जो मुनि बारम्बार जायेगा तो मांगने खाने में ही उसका काल पूरा हो जायगा; फिर योगाभ्यास किस समय करेगा ? दूसरा वीतरागदेव ने भी कहा है कि वैयावृत्त्य - साधुओं की टहल सेवा — करने वाले के बिना नित्यभोजी साधु एक बार गृहस्थ के घर जाये । बारम्बार जाने वाला भगवदाज्ञा- विराधक है ।
योगी के लिये हेयोपादेय वस्तु
अब योग साधनेवाला किस-किस वस्तु का त्याग करे, और किस-किस को ग्रहण करे । जो वस्तु भोग में न आवे जैसे १ – कडवी चीज
वस्तु
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