________________
जो प्रज्ञा के अहंकार में दूसरों की अवज्ञा करता है वह मूर्ख है । [१७७
इन्हीं को स्वरोदय वाले पांच तत्त्व कहते हैं, परन्तु यथावत् गुरु मिले बीर जिज्ञासु को योग्य जाने तो दूसरे भी पांच तत्त्व बतावे | उन पांच तत्त्वों की प्रसिद्धि ही नहीं है, परन्तु मैंने जिस गुरु की चरण- सेवा से योगाभ्यास की रीति पाई है उनकी जबानी इसका स्वरूप समझा है अनुभवी गुरु से ही विद्या का मर्म जाना जा सकता है जो ग्रन्थों में लिखा हुआ नहीं मिलेगा ।
थोड़े समय पहले श्री आनन्दघनजी महाराज महान योगी हुए हैं, वे मारवाड़ में बहुत घूमे हैं, और प्राय: कई देशों में प्रसिद्ध भी थे । आयु के नजदीक आने से उन्होंने विचारा कि यदि कोई जिज्ञासु मिले तो इस वस्तु ( योग प्रक्रिया) को दूं, ऐसा विचार कर मारवाड़ादि में अच्छी तरह अन्वेर किया किन्तु कोई योग्य जिज्ञासु व्यक्ति देखने में न आया । अनन्तर गुजरात देश में श्री यशोविजय जी उपाध्याय का नाम सुनकर श्री आनन्दघन जी महाराज गुजरात में गये और उपाध्यायजी से मिले एवं उनसे इस विषय का आदान प्रदान किया | योग्य शिष्य न मिलने से उन्होंने अपनी परम्परा में काई शिष्यादि न किया । क्योंकि उन्हें कोई योग्य शिष्य नहीं मिला । श्री आनन्दघन जी महाराजं अपनी बनाई हुई चौबीसी के अन्दर श्री कुन्थुनाथ भगवान् के स्तवन में जो नवमी गाथा है उसमें मन ठहरने की कह गये हैं । परन्तु बिना अध्यात्मी गुरु के गाथा का रहस्य मालुम नहीं होता । वह गाथा भी दिखाते है -
"मनडुं दुराराध्य तें वश प्राप्यं, ते आगमथी मति आणुं । श्रानन्दघन प्रभु माहरु आगो, तो साधुं करी जाणुं हो ||कुं ॥ ६ ॥
इस गाथा में आ-ग-म-थि इन चार अक्षरों में मन ठहरने का मतलब बतलाया, गुरुकुलवास बिना इसका अर्थ समझ में न आया, मैंने इसका अर्थ कितने ही जिज्ञासुओं को खोल कर बताया, जिन्होंने इस अर्थ को पाया, उन्होंने नवकार गुणने में मन भी ठहराया, इसके आगे भी बताते, परन्तु पूरा जिज्ञासु नज़र में न आया, इसीलिये वह पद पोथियों में उलटा सीधा गाकर पाठकगण को सुनाया ।
परन्तु पूर्वोक्त गाथा के पुर्वार्ध का अर्थ लोग ऐसा करते हैं कि हे श्री
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org