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मनोविकार ही वस्तुत: बन्धन का कारण है ।
ये प्रधान वायु धमन, *पंच अनुक्रम धार । नाग कूर्म अरु किरकिल, देवदत्त कहवाय ।
नाड़ी धनंजय पांचमी, गवणि दीन बतलाय ॥ ४४३ ॥ अर्थ-प्राण, अपान, समान, उदान , व्यान', नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय ये दस वायु अनुक्रम से उपर्युक्त दस नाड़ियों के आश्रित हैं अर्थात् इंगला नाड़ी में प्राण वायु, पिंगला में अपान, सुखमना में समान, गांधारी में उदान, हस्तजिह्वा में व्यान, पूषा में नाग, यशस्विनी में कूर्म, अलम्बुषा में कृकल, कुहू में देवदत्त तथा शंखिनी में धनंजय वायु आश्रित हैं। हमने ये सब बतला दी हैं-४४२-४४३
दस प्रकार वायु का वास स्थान हिया गुदा नाभि गला, तन संधि चित्त धार । प्राणादिक नी इणि परे, अनुक्रम वास विचार ॥४४४॥ नाग वायु प्रकाश थी, प्रगट होय उद्गार । कूर्म वायु नाड़ी उदय, उन्मीलन चित्त धार ॥४४५॥ छींक किरकला थी हुये, देवदत्त परकाश । जंभाई आवे सकल', जान धनंजय वास ॥४४६।। इत्यादिक नाड़ी तणो, कह्यो अल्प विचार ।
अधिक हिये में धारजी, गुरुगम थी ते विचार ॥४४७॥ अर्थ-प्राण वायु हृदय में, अपान वायु गुदा में, समान वायु नाभि में, उदान वायु गले में, व्यान वायु सब शरीर में रहता है । इन प्राणादि पांचों वायु का निवास स्थान अनुक्रम से जानना चाहिए-४४४
अब पांच प्रकार की नाग आदि वायु द्वारा जो-जो वस्तु प्रगट होती है उस का अनुक्रम से वर्णन करते हैं । नाग वायु के प्रकाश से डकार प्रगट होता है। नाड़ी में कूर्म वायु के उदय से आंखों का खोलना होता है । कृकल वायु से छींक प्रगट होती है । देवदत्त वायु से जंभाई आती है तथा धनंजय वायु का वास सारे शरीर में है -४४५-४४६.
इत्यादि नाड़ियों के विषय में संक्षेप से वर्णन कर दिया है। इनके विशेषः
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