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दूसरे की कोई भी वस्तु उसकी बिना आशा म
की सद्गुरु से कर ले ४४७ जब सुर बाहिर कुंचले, तब कोई पूछे यं । कोटि जतन सुंतेहो, कारज सिद्धि न थाय ॥ ४४८ ॥
सुर भीतर कुं चालती, आवी पूछे कोय | कोटि भांति करि तेहनो, कारज सिद्धि होय ||४४६।।
अर्थ - सारांश यह है कि यह बात विशेष रूप से लक्ष्य में रखने की है कि जब स्वर बाहर को निकलता हो तो उस समय कोई प्रश्न पूछे, प्रयान करे अथवा कार्य प्रारम्भ करे तो क्रोड़ों प्रयत्न करने पर भी उसे सफलता प्राप्त नहीं होगी - ४४८
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और जब स्वर भीतर को जाता हो अर्थात् स्वर नाक में प्रवेश करता हो उस समय यदि कोई आकर प्रश्न आदि करे तो उसे अवश्य सिद्धि हो । किसी भी प्रकार की विघ्न बाधाएं उसके कार्य में बाधक नहीं हो सकती - ४४६ पंचतत्त्व जो ये कहे, ते तो संज्ञा रूप ।
इन ऊपर जेमनग्रह्मो, ते तो मिथ्या कूप ॥ ४५० ॥
आमना ये है सुधी, सुर विचार के काज । सभ्यग् दृग थी जो ग्रहे, सो लहे सुख समाज ॥ ४५१॥
अर्थ — ये जो पांच तत्त्व कहे हैं वे तो संज्ञा रूप हैं मात्र इन पर ही मन
७६ – स्वर के बल से शत्रु से लड़े, मित्र से मिले, लक्ष्मी और कीर्ति की प्राप्ति करे । विवाह, राजा का दर्शन, देवता की सिद्धि और राजा अथवा राज्य कर्मचारियों को वश में करना ये सब कार्य स्वर के बल से होते हैं स्वर' के बल से ही देश विदेश में घूमना होता है ।
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८० (क) जिस दिन प्रातः काल से विपरीत स्वरों का उदय हो अर्थात् चन्द्रमा के स्थान में सूर्य और सूर्य के स्थान में चन्द्रमा बहे उस समय ये नीचे -लिखे अनुसार फल जानना चाहिए- - पहिले दिन में मन का उद्व ेग, दूसरे में धन की हानि, तीसरे में गमन और चौथे में इष्ट का नाश होता है। पांचवें में राज्य · का विध्वंस, छठे में सब अर्थों का नाश, सातवें में व्याधि और दु:ख, आठवें में मृत्यु कहा है ।
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