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मानव ! स्वनिग्रह कर । स्वयं के निग्रहसे दुःखोंसे मुक्त हो सकता है। लगाये रखना अध्यात्म दृष्टि से उपयोगी नहीं है। इसलिए उन अध्यात्म या के लिए तो ये मिथ्या कुच के समान हैं-४५०
हे महानुभाबो ! जैन आम्नाय ऐसी है कि मात्र स्वर विचार के लिए ही इसको सम्यग प्रकार से ग्रहण करने अर्थात् स्वरों द्वारा शुभाशुभ फल को समझने के लिए और सम्यग् प्रकार से समझ कर उसके अनुसार कार्य करने से
(ख) प्रातःकाल, मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों कालों में यदि स्वरों का उदय पहले कहे हुए से उल्टा आठ दिन तक बराबर चले तो उससे दुष्ट फल कहा है।
(ग) जिस दिन प्रात:काल और मध्यान्ह में चंद्रमा का स्वर और सायंकाल से सूर्य का स्वर चले उस दिन जय और लाभ कहा है और यदि उल्टा चले तो शुभ काम करना छोड़ दे अर्थात् अनिष्ट फल होता है ।
(घ) जिस अंग का स्वर चलता हो उसी अंग के हाथ की हथेली से सोकर उठा हुआ मनुष्य मुख का स्पर्श करे तो अपने अभिष्ट फल को पाता है। .
(ङ) दूसरे को दान देने में, ग्रहण करने में, या घर से बाहर जाने में जिस अंग की नाड़ी चलती हो उसी हाथ या पांव को आगे करके वस्तु को ग्रहण करे तो इस प्रकार फल जानें । ऐसा करने से न हानि हो, न कलह हो, न कण्टक (शत्रु) से विधे और वह सुख पूर्वक सब उपद्रवों से बचकर घर लौट आवे गुरु, बन्धु, राजा, मंत्री, आदि मान्य लोगों से अपनी कार्य सिद्धि के लिए पूर्णांगों से मिलने से मनोरथ सिद्ध होता है ।
(च) अग्नि का दाह, चोरी, अधर्म, घर्षण, वादि को निग्रह करना हो तो खाली नाड़ी की तरफ के हाथ से ही जय, लाभ और सुख की अभिलाषा मनुष्य करे। ___ जो जीव (पूर्ण) स्वर में शस्त्र को बांधे और जीव स्वर में ही शस्त्र को खोले उसी हाथ से शस्त्र को धारण करे, उसी हाथ से शस्त्र को फैंके वह मनुष्य युद्ध में हमेशा जीतता है।
(छ) प्राण वायु खींचते हुए यदि सवारी पर चढ़े और पवन को निकालते हुए उतरे तो वह सर्व कार्यों को सिद्ध करेगा।
(शिवस्वरोदय)
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