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सब दानों में ज्ञान दान श्रेष्ठ है।
धर्माधर्म विवेक समय मात्र प्रमाद नित, धर्म साधना मांहि ।
अथिर रूप संसार लख, रे नर करिये नाहिं ।।३७८॥ अर्थ हे मानव । इस संसार को अस्थिर जानकर-धर्म साधना के लिए सदा तत्पर रहो, एक समय मात्र भी प्रमाद में मत जाने दो-३७८
छीजत छिन-छिन पाऊखो, अंजली जल जिम मीत ।
काल - चक्र माथे भ्रमत, सोवत कहा अभीत ॥३७॥ अर्थ-हे मित्र ! जिस प्रकार अंजली में लिया हुआ जल क्षण-क्षणं में सदा छीजता रहता है उसी प्रकार तुम्हारी आयु भी क्षण-क्षण में क्षय होती रहती है । काल का चक्र हर समय तुम्हारे मस्तक पर घूम रहा है अतः तू निर्भय होकर क्यों सो रहा है-३७६ .
तन धन जोबन कारिमा, संध्या राग समान ।
सकल पदारथ जगत में, सुपन सरूप चित्त धार ॥३८०॥ अर्थ-यह तुम्हारा शरीर, धन दौलत तथा जवानी संध्या समय की लालिमा के समान अस्थिर हैं। जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब स्वप्न के समान नाशवान हैं-३८०
मेरा मेरा मत करे, तेरा है नहि कोय ।
चिदानन्द परिवार का, मेला है दिन दोय ॥३८१॥ अर्थ-रे जीव ! तू मेरा मेरा मत कर, जगत में तेरा कोई नहीं है। संसार में जिसे तू अपना परिवार मान रहा है वे सब स्वार्थ के साथी हैं। अन्त समय में तेरी इनसे रक्षा न होगी । तू इन्हें दो दिन का साथी समझकर अपनी आत्मा का कल्याण कर-३८१
ऐसा भाव निहारि नित, कीजे ज्ञान विचार ।
मिटे न ज्ञान विचार बिन, अन्तर भाव विचार ॥३८२॥ अर्थ-मन में इस संसार को प्रसार समझ कर सदा ज्ञान का विचार करना चाहिए क्योंकि ज्ञान के बिना आत्मा के अन्तर भाव का विकार नहीं मिट सकता-३८२
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