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सत्य साधक दुखों, विपत्तियों से घिर कर विचलित नहीं होता। ... [१३.
ज्ञान रवि वैराग्य जस, हिरदे चंद्र समान।
तास निकट कहो किम रहे ? मिथ्या तम दुख खान ॥३८३॥ अर्थ-जिसके हृदय में ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश द्वारा वैराग्य रूपी चंद्रमा का उदय हुआ है उसके निकट दुःखों की खान रूप जो मिथ्यात्व है वह कैसे रह सकता है ? अर्थात् ज्ञान का प्रकाश होने से मिथ्यात्व रूपी अन्धकार का स्वयमेव नाश हो जाता है-३८३
आप अपने रूप में, मगन ममत मल खोय । _ रहे निरन्तर समरसी, तास बन्ध नवि कोय ॥३८४।। अर्थ-जो व्यक्ति मोह का त्याग कर अपने निज स्वभाव में लीन होकर राग-द्वेष का त्याग कर समता भाव में रहता है उसे कर्म का बन्ध नहीं होता-३८४
पर परिणति परसंग सुं, उपजत विणसत जीव ।
मिट्यो मोह परभाव' का, अचल' अबाधित शिव ॥३८५।। अर्थ-पर परिणति (आत्मा के सिवाय दूसरे पदार्थों में ममत्व भाव) से जीव इस संसार में अनादि काल से जन्म मरण प्राप्त कर रहा है । आत्मा के सब प्रकार के पर पदार्थों पर से ममत्व भाव के हट जाने से उसे अक्षय (कभी नाश न होने वाला) तथा संक्लेश रहित (शाश्वत सुख सहित) मोक्ष की प्राप्ति होती है-३८५ . जैसे कंचुक त्याग थी, विरणसत नहीं भुजंग ।
देह त्यांग थी जीव पिण, तैसे रहत अभंग ॥३८६।। अर्थ-जैसे कांचली छोड़ देने से सर्प का नाश नहीं होता उसी प्रकार मोक्ष अवस्था प्राप्त कर (आत्मा) शरीर रहित होकर भी अनन्त काल तक मौजूद रहता है-३८६
जो उपजे सो तू नहीं, विणसत ते पिण नाहिं । छोटा मोटा तू नहीं, समझ देख दिल मांहि ॥३८७।। वरण भांति तो में नहीं, जात-पांत कुल रेख । राव रंक तू है नहीं, नहीं बाबा नहीं भेख ॥३८८।।
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