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१५२]: सत्य की पहचान कर लो ईश्वरके दर्शन अपने आप हो जावेंगे। अवस्या के पहुंच कर शाश्वत सुख रूप मोक्ष प्राप्त करता है-४२०
इन्द्र तणा सुख भोगतां, जो तृप्ति नहीं होय । . तो सुख सुन छिन एक में, मिले ध्यान में जोय ॥ ४२१ ॥
अर्थ-इन्द्र का सुख भोगते हुए भी जो तृप्ति नहीं अर्थात् इन्द्र का सुख भोगने के बाद फिर उस सुख का नाश है किन्तु ध्यान के योग में एक क्षण में शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है जिससे सदा के लिये तृप्ति प्राप्त हो जाती है-४२१
ध्यान बिना न लखी सके, मन कल्लोल स्वरूप ।
लख्या बिना किम उपशमे ? येहू भेद अनूप ॥ ४२२ ॥ अर्थ-ध्यान के बिना मन की चंचलता को नहीं जान सकता और मन की चंचलता को जाने बिना उसका निरोध कैसे सम्भव हो सकता है ? मन का निरोध किये बिना शांति प्राप्त होना असम्भव है। इसलिए चित्त वृत्ति निरोध के लिये इस ध्यान के अनुपम स्वरूप को समझना चाहिए-४२२
ध्यान करने की विधि आसन पद्म लगाय के, मूलबन्ध दृढ़ लाय । मेरुदण्ड सीधा करे, भेद द्वार कुं पाय ।। ४२३ ॥ करे श्वास संचार तब, विकल्प भाव निवार ।
जिम जिम स्थिरता उपजे, तिम तिम प्रेम वधार ।। ४२४ ॥ अर्थ-पद्मासन लगाकर मूलबन्ध को दृढ़ करें और मेरुदण्ड को सीधा करके नासाग्र दृष्टि रखकर निश्चल मन से बैठे तथा भेद द्वार को पाकर श्वास का संचार करें। सब प्रकार के विकल्प भावों का त्याग कर अपनी आत्मा की स्थिरता को बढ़ाते जावें जैसे-जैसे स्थिरता बढ़ती जावे वैसे-वैसे निजात्म स्वभाव को प्रगट करने की तरफ प्रेम बढ़ाते जावें-४२३-४२४
प्रेम बिना नवि पाइये, करतां जतन अपार ।
प्रेम प्रतीते है निकट, चिदानन्द चित्तधार ।। ४२५ ।। अर्थ-जब तक निजात्म स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रीति नहीं होगी तब तक अपार प्रयत्न (असंख्य उपाय) करने पर भी स्थिरता प्राप्त नहीं हो
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