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जो शुद्ध भावसे ब्रह्मचर्यका पालन करता है वही सच्चा साधु है। सकती । प्रेम करने से मन वास्तविक आनन्द को प्राप्त करने के लिए निकटतम हो जाता है : यह बात निःसंदेह मन में समझो-४२५
जो रचना तिहुँ लोक में, सो नर तन में जान ।
अनुभव बिन होवे नहीं, अन्तर तास पिछान ॥ ४२६ ।। अर्थ-तीन लोक में जितनी रचना है वह सब मनुष्य के शरीर में मौजूद हैं । अपने अन्तर में इसका अनुभव ज्ञान के बिना नहीं हो सकता–४२६
अन्तर भाव विचारतां, मन वायु थिर थाय ।
तिम तिम नाभि कमल में, पूरक थई समाय ॥ ४२७ ॥ अर्थ-जैसे-जैसे अन्तर भाव में लीन होने से मन वायु स्थिर होती है वैसेवैसे पूरक होकर वायु समाती जाती है—४२७
नाभि स्वास समाय के, उर्द्ध रेचसी होय ।
प्रजप जाप तिहां होत है, विरला जाने कोय ॥ ४२८ ।। ___ अर्थ-पूरक द्वारा खींचा हुआ वायु नाभि में जाकर स्थिर होता है उसे कुम्भक कहते हैं फिर वहां से वायु ऊपर की तरफ होकर निश्वास रूप से बाहर निकलता है उसे रेचक कहते हैं । पूरक, कुम्भक तथा रेचक करते समय अपने आप अजपाजाप" होता है इस भेद को कोई बिरला ही जान सकता है।
हंकारे सुर उठत है। थई सकार समाय ।
अजप जाप तिहां होत है, दीनों भेद बताय ।। ४२६ ॥ अर्थ-श्वास लेते समय 'सो' का शब्द तथा निश्वास छोड़ते समय 'हं' का शब्द प्रगट होता है। इससे स्वयमेव ही अजपाजाप होता है । इसका भेद हम पहले बतला चुके हैं—४२६
ज्ञानार्णव थी जानजो, अधिक भाव चित्तलाय । . थाय ग्रंथ गौरव घणों, तामें कह्या न जाय ॥ ४३० ॥ ७६-अजपाजाप का स्वरूप हम पहले बतला चुके हैं । सोऽहं के समान "अहम' का भी अजपाजाप होता है । श्वास लेते समय "अर" का शब्द तथा श्वास छोड़ते समय हं" का शब्द इस प्रकार 'अहम्' का शब्द स्वतः प्रगट होता है। ओम् का भी अजपाज़ाप होता है ।
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