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जो संकट काल में भी साथ नहीं छोड़ता वह सच्चा बन्धु है ।
वस्ती पंचम भेद पिछानो । छठा कपाल भाती मन आनां ॥ किंचित आरम्भ लख इन मांहि । जैन धर्म में करिये नांहि ।। ७७ ।। अर्थ - वायु का संचार अस्त-व्यस्त होता है कारण विशेष वश षट्कर्म करना चाहिए । षट् कर्मों के नाम ये हैं- नैती, धौती, नौली त्राटक – ७६
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पांचवां वस्ति, छठा कपाल – ये षट्कर्म श्वास निश्वास ( प्राणायाम ) के साधन मात्र में सहायक हैं परन्तु इनसे आत्मा का कल्याण नहीं है इसलिए saat foचित मात्र लाभ देखकर जैन धर्मं इनको आध्यात्मिक साधना के लिए महत्व नहीं देता – ७७
( चौपाई ) त्राटक नवली ये दोय भेद । करत मिटे सहु तन का खेद ||
रोग नवि होवे तन मांहि । आलस ऊंघ अधिक होय नांहि ।। ७८ ।। अर्थ - त्राटक और नौली इन दो भेदों की साधना करने से शरीर के क्लेश मिट जाते हैं। शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं आता । आलस्य और नींद भी बहुत अल्प हो जाते हैं - ७८
जैनधर्मानुसार भ्रष्ट योग दृष्टि
( चौपाई ) दृष्टि अष्ट योग की कही । ध्यान करत ते अन्तर लही ॥ कीजे यह सालम्बन ध्यान । निरालम्बता प्रगटनः ज्ञान ।। ७६ ।। मित्रा तारा दूजी जान । बला चतुर्थी दीप्ता मन आन || थिरा दृष्टि कान्ता फुनि लहिये । प्रभा परा अष्टम कहिये ॥ ८० ॥ अर्थ- जैन दर्शन में योग की आठ दृष्टियां कहीं हैं इनके भेदों को जानकर
२६ – पहले जो हठ योग के आठ अंगों के विषय में पद्य नं० ५६-५७ में कहा है वे आत्म कल्याण में साधक न होने से जैन धर्म की दृष्टि में इनका कोई विशेष महत्व नहीं है । आत्मा को स्वकल्याण करने के लिए अष्ट योग दृष्टियों का जैनाचार्यों ने विस्तृत वर्णन किया है । जो इनका विस्तृत स्वरूप जानने के प्रभिलाषी हैं वे योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योग शास्त्र आदि ग्रन्थों का अवलोकन करें। यहां पर संक्षेप से इन आठों दृष्टियों का स्वरूप लिखते हैं । अष्ट योग दृष्टि —
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१ – मित्रा दृष्टि — इस दृष्टि में मन्द दर्शन, इच्छादि यम, देव कार्य आदि में
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