________________
प्रिय हो या अप्रिय सबको समभाव से ग्रहण करो।
अपने अमल विसार के, दू के घर जाय । रोग कफादिक थी जुई, सन्निपात कहवाय ॥१८२॥ रोम-रोम में जगतगुरु, पौणा दो दो रोग ।
भाख्या प्रवचन मांहि ते, अशुभ उदय तस भोग ।।१८३।। अर्थ-यह शरीर वात, पित्त, कफ इन तीनों के योग से बना है। इन तीनों के सम रहने से शरीर निरोग रहता है जिससे जीव को सुख का अनुभव होता है तथा इन तीनों के विषम हो जाने से शरीर में रोगों की उत्पत्ति होती है-१७४ ___ इस शरीर में चौरासी प्रकार की वात है, पच्चीस प्रकार का पित्त है तथा तीन प्रकार का कफ होता है इन तीनों के कुल मिला कर ११२ भेद होते हैं-१७५
वायु का निवास उदर में है और उसका स्वामी सूर्य है । यह सौ धमनियों में सदा भरपूर रहता है-१७६
पित्त का निवास कन्धों में है, जठराग्नि में संचरण करता है तथा इसका स्वामी भी सूर्य है-१७७ ___ नाभी से तीन अंगुल वाम दिशामें दो नाड़ियां कफ की हैं जो हृदय तक आती हैं-१७८
कफ का स्वामी चंद्र है, यह तो हुई व्यवहार की बात । निश्चय से तो एक में ही तीनों का समावेश हो जाता है-१७६
अपनी-अपनी ऋतु में वात, पित्त और कफ अपना-अपना ज़ोर दिखलाते हैं इसके उपचार में प्रवीण जो वैद्यक ग्रंथ हैं उनसे सविस्तार जान लेना चाहिए। यहां विस्तार भय से इनके अधिक प्रकार नहीं लिखे। इन मूल वात, पित्त और कफ तीनों से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं-१८०-१८१
कफादिक अपना अपना स्थान छोड़ कर जब दूसरे के घर जाते हैं तब जो रोग होता है उसका नाम सन्निपात है-१८२
सर्वज्ञ प्रभु ने प्रवचन में एक-एक रोम में पौने दो-दो रोग बतलाये हैं। अशुभ कर्म के उदय से जीव को इन रोगों को भोगना पड़ता है-१८३ ...
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org