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पुरुषार्थहीन व्यक्ति हर कार्य में दोष ढूंढा करता है ।
वाद-विवाद करना, दूत की काम करना, शस्त्रादि युद्ध कला का अभ्यास करना, जुआ खेलना, चोरी करने जाना, कल- मशीनरी आदि का काम सीखना, लेखन लिपि सीखना, यंत्र-मंत्र-तंत्र का क्रूर कार्यों के लिये साधन करना । माल की खरीद-फरोखत (क्रय-विक्रय) करना, मारण, उच्चाटन ( तथा मोहन -स्तम्बन ) के प्रयोग करना, स्त्री से आलिंगन करना, मित्रता जोड़ना, स्त्री को वश करना, मोहन, स्तम्बन, उच्चाटन करना, भूत निकालना, वैतालादि डाकिनी, शाकिनी,
छल छिद्र, दृष्टि दोष, मुट्ठी, देव, दानव आदि सर्व दोष दूर करना । इत्यादि
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जितने भी चर और क्रूर कार्य हैं वे सब सूर्य स्वर में करने चाहिये । लाभालाभ का विचार कर पूछने वाले को कहना चाहिये, नहीं तो मन में विचार कर चुप रहना चाहिये - २१२
तात्पर्य यह है कि विवाह दानादि सौभ्य कार्य चन्द्र स्वर में करने से सुखदायी होते हैं तथा क्रूर और चर कार्यों में सूर्य स्वर प्रधान है । हम जो पूर्व में वर्णन कर आये हैं उनको अच्छी तरह समझ कर मन में धारण करना चाहिये और मनन चिन्तन पूर्वक शुभाशुभ का निर्णय करे । जैसे कि घोड़ा, ऊंट, बैलगाड़ी, पालखी, रथ, मोटरगाड़ी आदि जिन सवारियों का वर्णन किया है उन्हें बेचना सूर्य स्वर में और खरीद करना चाहिये चन्द्र स्वर में । क्रूर कार्य के लिये मंत्र-यंत्र-तंत्र आदि साधन करने हों तो सूर्य स्वर में और नवकार मंत्रादि शांतिदायक मंत्रों का साधन तो शान्त स्वर अर्थात् चन्द्र स्वर में ही करना चाहिये अर्थात् जो चर और क्रूर कार्य कहे हैं अथवा नहीं भी कहे वे सब सूर्य स्वर में सिद्ध होते हैं - २१३
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(दोहा) चन्द्र जोग थिर काज कूं, उत्तर महा बखान ।
जोग चर काज में, श्रेष्ठ अधिक मन प्रान ।। २१४ ।।
भानु ४४ – संग्राम - सुरत - भोजन विरुद्धकार्येषु दक्षिणेष्टास्यात् । अभ्युदय - हृदयवांछित समस्त शस्तेषु वामैव ।। ४५ ।।
अर्थ – संग्राम, कामक्रीड़ा, भोजनादि विरुद्ध कार्यों में तो दाहिनी नाड़ी श्रेष्ठ है तथा अभ्युदय और मनोवांछित समस्त शुभ कार्यों में बाई
नाड़ी शुभ है।
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