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...समय पर किया हुआ ही श्रम सफल होता है।
अर्थ-(१) स्वर में प्रथम वायु तत्त्व, दूसरे अग्नि तत्त्व, तीसरे पृथ्वी तत्त्व चौथे जल तत्त्व, और पांचवें आकाश तत्त्व क्रमशः एक-एक स्वर में बहते हैं-२२७ .
(२) बाईं तरफ से स्वर उठकर पिंगला में बहने लगे तो उसे संक्रम कहते हैं । इसमें संशय नहीं है-२२८
(३) पृथ्वी और जल तत्त्व शुभ है, अग्नि तत्त्व मध्यम (मिश्र) फल दाता है, वायु तत्त्व हानि करता है, तथा आकाश तत्त्व मृत्यु दायक है-२२६
(४) पृथ्वी तत्त्व सामने; जल तत्त्व नीचे, अग्नि तत्त्व ऊचे, वायु तत्त्व टेढ़ा, तथा आकाश तत्त्व नासापुट में संक्रम करता है । इस प्रकार पांचों तत्त्व बहते हैं-२३०
(५) ऊर्ध्वतत्त्व में मृत्यु, अधो तत्त्व में शांति, तिरछे तत्त्व में उच्चाट, मध्य तत्त्व में स्तम्भन के कार्य करने चाहिए तथा नभ तत्त्व में कोई काम नहीं करना चाहिए-२३१
(६) पृथ्वी तत्त्व जांघ में, वायु तत्त्व नाभि में, अग्नि तत्त्व कन्धों में, जल तत्त्व पांव में, तथा नभ तत्त्व सिर में वास करते हैं । तत्त्वों के स्थान इस पद्य में बतला दिए हैं-२३२
(७) स्थिर कार्य पृथ्वी तत्त्व में, चर कार्य जल तत्त्व में, क्रूर कार्य अग्नि तत्व में, उच्चाटन और मारण कार्य वायु तत्व में करने चाहिए । आकाश तत्त्व में कोई कार्य नहीं करना चाहिए । आकाश तत्त्व में मात्र ध्यान ईश्वर भजन, तथा योगाभ्यास करना चाहिए५२ -२३३-२३४
५२-पद्य नं० २३३-२३४ के वर्णन के अतिरिक्त ज्ञानावर्णव प्र० २६ में इस प्रकार से कहा है
स्तम्भनादिके महेन्द्रो, वरुणः शस्तेषु सर्व कार्येषु ।
चल मलिनेषु च वायुर्वश्यादौ वह्निरुद्देश्यः ॥२८॥ अर्थ-पुरुष को स्तम्भानादि कार्य करने हों तो पृथ्वीमंडल का पवन शुभ है । जल मंडल का पवन समस्त प्रकार के उत्तम कार्यों में शुभ है तथा वायु मंडल का पवन चल कार्यों तथा मलिन कार्यों में श्रेष्ठ है तथा वश्यादि कार्यों में अग्नि मंडल का पवन उत्तम है।
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