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सद्गुणों की साधना भुजाओं से सागर तैरने जैसा है। [4]
(८) पश्चिम दिशा में जल तत्व बलिष्ठ है । दक्षिण दिशा में पृथ्वी तल बलिष्ठ है । पूर्व दिशा में वायु तत्त्व बलिष्ठ है । उत्तर दिशा में अग्नि तत्त्व बलिष्ठ है । और आकाश स्थिर स्थान में बलिष्ठ है-२३५
() पृथ्वी तत्त्व में कार्य की सिद्धि धीरे-धीरे हो, जल तत्त्व में कार्य की सिद्धि तत्काल हो, पवन तत्त्व हो तो थोड़ा लाभ हो, अग्नि तत्त्व हो तो सिद्ध हुआ कार्य भी नष्ट हो जावे, आकाश तत्त्व में कोई कार्य सिद्ध न हो-२३६
(१०) पृथ्वी तथा जल तत्त्व में सिद्धि, अग्नि तत्त्व में मृत्यु, वायु तत्त्व में क्षयकारी, तथा आकाश तत्त्व निष्फल है-२३७
प्रश्न समय उत्तरदाता के स्वरों से प्रश्नकर्ता को फल (दोहा) संग्रामादिक कृत्य में, प्रबल' हुताशन होय ।
चन्द्र स्वर संग्रह विषय, फलदायक अति जोय ॥२३८॥ जीवित जय धन लाभ पुत्र, मित्र अर्थ जुध रूप । गमनागमन' विचार में, जानो मही अनूप ॥२३६॥
कलह" शोक दु:ख भय तथा मरण कछु हुइ उत्पात । ५३-शिवस्वरोदय ज्ञान में तत्त्व की बलिष्ठता के विषय में निम्न मतहै
पूर्वायां पश्चिमे याम्यां उत्तरस्यां यथाक्रमम् ।
पृथिव्यादीनि भूतानि, बलिष्ठानि विनिदिशेत् ॥१६०॥ अर्थ-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर इन चारों दिशाओं में क्रम से पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों तत्त्व बलिष्ठ हैं। ___५४-छत्र-गज-तुरग-चामर रामा-राज्यादि सकल कल्याणम् ।
माहेन्द्रो वदति फलं मनोगतं सर्वकार्येषु ॥२६।। (ज्ञानार्णवे) अर्थ-माहेन्द्र पवन (पृथ्वी मंडल) छत्र, हाथी, घोड़ा, चामर, स्त्री, राज्यादि समस्त कल्याणों को कहता है तथा समस्त कार्यों में मनोगत भावों को प्राप्त कराता है अर्थात् मन में विचारे हुए कार्यों की सिद्धि करता है-२६ ५५-सिद्धमपि याति विलयं, सेवा कृष्यादिकं समस्तमपि चैव ।
मृत्यु-भय-कलह-वैरं पवने त्रासादिकं च स्यात् ॥३२॥ (ज्ञानार्णवे)
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