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इच्छाओं का त्याग ही सच्चा अपरिग्रह है। तत्त्व युगल शुभ है सुधी, करत प्रश्न परियाण। . नाम तेह' नुं चित्त में, मही उदक, मन आन ॥ ३२४ ॥ उर्ध्व दिशापति चन्द्र है, अधो दिशापति भान । क्रूर सौम्य कारज लखी, गमन भाव पहिचान ॥ ३२५ ।। सुखमन चलत न कीजिये, सुधि परदेश पयाण । जावे तो जीवे नहीं, कारज हानि पिछान ॥ ३२६ ॥ तत्त्व पंच के गमन में, होत भंग पचवीस।
देशिक ग्रंथ करि सदा, बीतत जान जोतीष ॥ ३२७ ॥ अर्थ-(१) यदि चन्द्र स्वर चलता, हो तो दक्षिण और पश्चिम दिशा में गमन करने से खूब सुख भोग कर घर वापिस लौट आयेगा - ३१८
निष्क्रमणे निर्जीवः फलमपि च तयोस्तथा ज्ञेयम् ।। ७२ ॥
(ज्ञानार्णवे) अर्थ-किसी छिपी वस्तु के विषय में पवन के प्रवेश काल में प्रश्न करे तो जीव है ऐमा कहना चाहिये और पवन के निकलते हुए काल में प्रश्न करे तो निर्जीव है ऐसा बड़े बुद्धिमान पुरुषों ने कहा है । तथा इनका फल भी वैसा ही कहा जाता है ।
जीवे जीवति विश्वं मृते मृतं सूरिभि समुद्दिष्टम् । सुख-दुःख-जय-पराजय-लाभालाभादि मार्गोऽयम् ॥ ७३ ॥
(ज्ञानार्णवे) अर्थ-जो पवन के प्रवेश काल में जीव कहा सो जीते हुए समस्त वस्तु भी जीवित कहना, पवन के निकलते हुए मृतक कहा तो समस्त वस्तु निर्जीव ही कहना चाहिये । तथा सुख-दुःख, जय-पराजय, लाभ
अलाभ आदि का भी यही मार्ग है-७३ ६५-पांच तत्त्वों में पच्चीस भेदों के लिए देखें फुटनोट ४६ यानि पृथ्वी तत्त्व
में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पांचों तत्त्व क्रमशः भुगतते हैं। इसी प्रकार जल' आदि तत्त्वों में भी पांच-पांच तत्त्व भुगतते हैं । इस प्रकार पांचों तत्वों में पच्चीस तत्त्व भुगतते हैं ।
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