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अपने सुख के लिए दूसरोंको कष्ट पहुंचानेझले पुरुष महानिकृष्ट होते हैं। [१०५ रोग और पीड़ा है।
(५) यदि स्वर में आकाश तत्त्व चलता हो उस समय परदेश गये व्यक्ति के लिए कोई आकर पूछे तो कह देना चाहिए कि उसकी परदेश में मृत्यु हो गई है-३३२
परदेश गमन समय का विचार दोहा-भानु विषम शशि मांहि सम, पगला भरतां मीत ।
वार तिथि इन विधि करत, होवे सुन तस रीत ॥ ३३३ ॥ चन्द चलत आगल घरी, डाबा पगला चार । गमन करत तिन अवसरे, होय उदधिसुत वार ॥ ३३४ ॥ सुर सूरज में जीमणा, पग पागल धरे तीन । चलत गमन में होत है, दिनकर वार प्रवीन ॥ ३३५ ।। सुर विचार कारज करत, सफल होय तत्काल । तत्त्वज्ञान एहना कह्या, चमत्कार चित्त भाल ॥ ३३६ ।। तिथि वार नक्षत्र फुनि, करण जोग दिगशूल । लक्षण पात होरा लिए, दग्ध तिथि अरु मूल ॥ ३३७ ॥ विष्टि काल कुलिका लगन, व्यतिपात स्वर भान। शुक्र अस्त अरु चोघड़ी, यम घंटादिक जान ।। ३३८ ।। इत्यादिक अपयोग को, या में नहीं विचार ।
ऐसो ये सुरज्ञान नित, गुरुगम थी चित्त धार ॥ ३३६ ॥ अर्थ-१. परदेश गमन समय यदि सूर्य स्वर में प्रयाण करना हो तो विषम पग से आगे चलना चाहिए तथा चन्द्र स्वर में गमन करना हो तो सम पग से आगे चलना चाहिए । यानि सूर्य स्वर में एक तीन, पांच, सात इत्यादि कदम आगे
६७-चरणदास कृत स्वरोदय ज्ञान में स्वर के विषय में इस प्रकार कहा है
धरनि टरै गिरिवर टरै, ध्रुव टरै सुन मीत ।
वचन स्वरोदय न टरै, कहे दास रणजीत ॥ अर्थ-रणजीतदास (चरणदास) कहते हैं कि धरती, मेरु पर्वत, ध्रुव तारा, चाहे अपने स्थान से भ्रष्ट हो जावे परन्तु स्वरोदय का वचन नहीं टल सकता ।
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