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पापात्मा अपने ही कर्मों से पीड़ित होता है। संक्रम भाव समीर में, फल दृष्टि जु विख्यात् ।।२४०॥ राजनाश पावक चलत, पृच्छक नर की हान । ... दुर्भिक्ष हो महितत विषय, रोगादिक फुनि जान ।।२४१॥ दूभिक्ष घोर विग्रह सुधि, देश भंग भय जान । चलत वायु आकाश तत, चौपद हानि बखान ॥२४२।। माहेन्द्र वरुण जुग जोग में, घन-वृष्टि अति होय। राज-वृद्धि परजा-सुखी, समय श्रेष्ठ अति होय ॥२४३॥ मही उदक दोऊ विषय, चन्द्रथान तिथि रूप ।
चिदानन्द फल तेह , जानो परम अनूप ॥२४४॥ अर्थ-१. युद्धादि प्रश्न में अग्नि तत्त्व प्रबल है। महायुद्ध में वैरी हार प्राप्त करे।
२. संग्रह करने के लिए चन्द्र स्वर उत्तम फलदाता है-२३८ ३. जीवन, जय, धन, लाभ, पुत्र, मित्र, अर्थ, युद्ध, गमनागमन जाने-माने
. अर्थ-वायु मंडल के पवन बहने पर सेवा, कृषि प्रादि समस्त कार्य सिद्ध हुए हों वे भी नष्ट हो जाते हैं । तथा मृत्यु भय, कलह, देर, त्रासादिक होते हैं-३२ ५६-भय-शोक-दुःख-पीड़ा-विघ्नौघपरम्परां विनाशं च । .
व्याचटे देहभृतां दहनो दाहस्वभावोऽयम् ॥३१॥ (ज्ञानार्णवे) अर्थ-यह अग्नि मंडल का पवन दाह स्वभाव रूप है। यह पवन जीवों को भय, शोक, दुःख, पीड़ा तथा विघ्न समूह की परम्परा तथा विनाशादिक कार्यों को प्रगट कहता है-३१ ५७–अभिमतफलानि कुरम्ब विद्यावीर्यादि भूति संकर्णम् ।
सुतयुवति वस्तुसारं वरुणो योजयति जन्तूनाम् ॥३०॥ (ज्ञानार्णवे) अर्थ-जल पवन जीवों को विद्या वीर्यादि विभूति सहित तथा पुत्र स्त्री आदि में जो सार वस्तु मनोवांछित हो उन सबको प्राप्त कराता है-३०
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