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सर
साधक को कभी दीन और अभिमानी नहीं होना चाहिए ।
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गति का प्रमाण देखे और साथ ही प्रकार एवं " इच्छा को भी ध्यान में रख कर तत्त्व का निर्णय करें - २२५-२२६
विचार करो कि जिस समय तत्त्व चार अंगुल नासिका से बाहर निकलता है तीखी वस्तु पर चित्त चलता है, प्यास लगती है तो उस समय अग्नि तत्त्व होगा । यदि नीचे लिखे चार्ट के वारहवें कोठे के विचार से इनके साथ
आंख मीच कर उठा लेना चाहिये । यदि मन में बिचारा हुआ और गोली का रंग एक मिल जावे तो जान लेना चाहिये कि तत्त्व मिलने लगा है ।
(३) अथवा किसी दूसरे पुरुष को कहना चाहिये कि तुम किसी रंग का विचार करो । जव वह पुरुष किसी रंग का विचार कर ले उस समय अपने नाक के स्वर में तत्त्वों को देखना चाहिये तथा अपने तत्त्व को विचार कर उस पुरुष के विचारे हुए रंग को बतलाना चाहिये कि तुमने अमुक रंग का विचार किया है । यदि उस पुरुष का विचारा हुआ रंग ठीक मिल जावे तो समझ लेना चाहिये कि तत्त्व ठीक मिलता है ।
(नोट) जब तत्त्व को देखना हो तब ग्रासन बिछाकर मूलासन अथवा पद्मासन में बैठ कर चित्त को स्थिर करके देखना चाहिये । ऊपर कही हुई रीतियों से मनुष्य को कुछ दिनों तक तत्त्वों का साधन करना चाहिये। क्योंकि कुछ दिनों के अभ्यास से मनुष्य को तत्त्वों का ज्ञान होने लगता है और तत्त्वों का ज्ञान होने से वह पुरुष कार्याकार्य और शुभाशुभादि होने वाले कार्यों को शीघ्र ही जान सकता है ।
१४८ - अनुसंधान के लिये देखें पद्य नं० - १११-११२ ४६ - प्रनुसंधान के लिये देखें पद्य नं० - २५३.
५० - कांति संगम आलस्य भूख प्यास जो होय | चरणदास पांचों कही, अग्नि तत्त्व सों जोय ॥१६१॥ रक्त वीर्य कफ तीसरो, मेद मूत्र को जान । चरणदास परकिरत यह, पानी सों पहिचान ।। १६२ ।। चाम हाड़ नख कहूं, रोम जान अरु मांस ।
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