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- योग दृष्टि साधने वाले की योग्यता (चौपाई) सघन अघन दिन रयणी कही। ताका अनुभव या मे लही।
निर उपाधि एकान्ते स्थान । तिहां होय यह आत्म ध्यान ।। ८१ ॥
५--स्थिरा दृष्टि-यह दृष्टि दो प्रकार की है, निरतिचार-सातिचार । निरति
चार में जो दर्शन होता है वह नित्य, अप्रतिपाति होता है, जैसा है वैसा अवस्थित रहता है। सातिचार में जो दर्शन होता है वह अनित्य भी होता है-न्युनाधिक हुअा करता है। यह दर्शन प्रत्याहार से युक्त होता है तथा वन्दनादि क्रिया क्रम की अपेक्षा से अभ्रांत, निर्दोष-निरतिचार होता है इसलिए यह सूक्ष्म बोध सहित होता है । क्योंकि ग्रन्थि भेद से यहां, वैद्य संवेद्य पद की प्राप्ति होती है । इसका दर्शन रत्न की प्रभा के समान है।-- योग का पांचवा अंग प्रत्याहार होता है । भ्रांति नामक पांचवा चित्त दोष
नष्ट होता है । बोध नामक पांचवां गुण प्रगट होता है। ६–कांता दृष्टि-नित्य दर्शनादि सब होते हैं तथा यह गुण सब को प्रीति
उपजाने वाले होते हैं परन्तु द्वेष नहीं होता । परम धारण-चित्त का देश बन्ध होता है तथा इस धारणा के कारण यहां अन्यमुह नहीं होती एवं नित्य सर्व काल सद् विचारात्मक तत्त्व विचारणा होती है, कि जो सम्य- |
ग्ज्ञान के फल के कारण हितोदयवती होती है।' ७-प्रभा दृष्टि-सूर्य प्रभा के समान बोध, सातवां योगांक ध्यान, सातवें रुग
दोष का अभाव तथा सातवें तत्त्व प्रतिपत्ति गुण का सद्भाव होता हैं । ऐसी ..यह दृष्टि प्रायः ध्यान प्रिया होती है तथा विशेषकर समसंयुक्त तथा इससे
सत्प्रवृत्ति पद लाने वाली होती है । ८-परा दृष्टि-यह समाधि निष्ठ तथा इसके प्रासंग दोष से विवर्जित होती
है। सात्मीभूत प्रवृत्ति वाली, तथा इनके द्वारा उत्तीर्ण आशय वाली होती
२७-ओध दृष्टि अर्थात् सामान्य दृष्टि-संसार प्रवाह में डूबे हुए ऐसे भवाभिनन्दी
सामान्य कोटि के जीवों की दृष्टि को ओघ दृष्टि कहते हैं (Vision of a ___layman) तथा ओघ दृष्टि भी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रादि कर्म
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